30.11.06

महापुरूषों में प्रतिस्पर्धा

शहीद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु व चन्द्रशेखर आजाद की शहादत के ७५ वर्ष पूरे होने पर नवनिर्माण के ३ विशेषांक इस वर्ष फरवरी, मार्च अप्रैल माह में निकले थे। इन विशेषांकों के लिये मैंने यह लेख लिखा था। सृजनशिल्पी जी ने "गाँधी की महानता पर उठते प्रश्न" लेख में जो प्रश्न प्रस्तुत किये हैं और स्वामी रामदेव, ओशो आदि महापुरुषों के विचार लिखे हैं, उस परिपेक्ष्य में यह लेख असामयिक नहीं होगा।
मेरा मानना है कि गान्धीवाद के नाम से किसी वाद को रचने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि गान्धी जी ने कोई नई बात नहीं बताई थी। सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पंचायती राज व्यवस्था आदि बातें भारतीय संस्कृति में सदा से रही हैं। गांधी जी ने सिर्फ उन को अपने तरीके से पुनः स्थापित करने का प्रयास किया था। उस विषय पर फिर कभी लिखूंगा।

महापुरूषों व आम इन्सानो में एक अन्तर यह होता है कि महापुरूष निन्दा व ईर्ष्या के भाव नहीं रखते, जबकि एक सामान्य व्यक्ति इन दुगुर्णों से ग्रस्त रहता है। आज कल गान्धी जी व भगत सिंह जैसे महापुरूषों की तुलना करना व दोनों में से किसी एक को श्रेष्ठ बताने का रिवाज सा चल पड़ा है। परन्तु इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि इन महापुरूषों में मतभेद तो अनेक थे, मगर किसी ने भी दूसरे व्यक्ति की न तो निन्दा की और न ही किसी प्रकार की स्पर्धा व ईर्ष्या को मन में स्थान दिया।

शहीद सुखदेव ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही गान्धी जी को एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र में गान्धी जी के विचारों व कार्यप्रणाली से मतभिन्नता ही भरी हुई थी, परन्तु सुखदेव जी पत्र का आरंभ “परम कृपालु महात्मा जी” के सम्बोधन से प्रारम्भ करते हैं। पत्र में सुखदेव जी ने गान्धी−इर्विन समझौते के बाद गान्धी जी की उन प्रार्थनाओं के औचित्य पर सवाल उठाए जिनमें गान्धी जी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को बन्द करने का आग्रह किया था। अत्यन्त शालीन भाषा में लिखे इस पत्र का अन्त सुखदेव जी “आपका, अनेकों में से एक” लिख कर करते हैं।

ठीक इसी प्रकार गान्धी जी जब इन शहीदों के बारे में बोलते हैं तो उनकी बातों से इन वीरों के प्रति आदर ही झलकता है, और विरोध करते हैं तो मात्र ‘हिंसा’ की मानसिकता का। 29 मार्च 1931 को ‘भगत सिंह’ शीर्षक से नवजीवन में प्रकाशित एक लेख में गान्धी जी जहां एक ओर गान्धी जी भगत सिंह से मतभेद प्रगट करते हैं,वहीं दूसरी ओर लिखते हैं कि “इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।” इसी लेख में गान्धी जी लिखते हैं कि भगत सिंह हिंसा को अपना धर्म नहीं मानता था; वह अन्य कोई उपाय न देख कर ही खून करने को तैयार हुआ था।

हम पाते हैं कि महापुरूष मतभेद तो प्रकट करते हैं, परन्तु व्यक्तिगत विरोधों का उनकी दृष्टि में कोई स्थान नहीं होता। ऐसे ही गुण उन्हें जनसाधारण की दृष्टि में महापुरूष बनाते हैं।

भारतीय संस्कार भी हमें यह सिखाते हैं कि “पापी से भी घृणा न करो”। फिर यह कैसे हो गया कि हम लोग जिस व्यक्ति के विचारों व कृत्यों से सहमत नहीं होते, उससे विद्वेष पाल लेते हैं। भगत सिंह की अतिशय देशभक्ति व 23 वर्ष की अल्पायु में अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर कर देना ही उनके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न करने के लिये काफी है − चाहे हम भगत सिंह की कार्य प्रणाली से सहमत न हों। उसी प्रकार गान्धी जी द्वारापैदा की गई जनचेतना, हर प्रकार के भौतिक सुखों का त्याग तथा अतिशय भारत−प्रेम भी उन्हें श्रद्धेय ही बनाते हैं − चाहे हम उनकी कार्य प्रणाली से सहमत न हों।

आइये, हम प्रण करें कि कभी दो व्यक्तियों की तुलना नहीं करेंगे। कभी किसी व्यक्ति की निन्दा भी नहीं करेंगे। महापुरूषों के गुण उन्हें सदैव आदरणीय बनाते हैं, चाहे उनकी कार्य प्रणाली से हम सहमत न हो पाएं। इसलिए हर मतभेद के बावजूद उनके गुणों का आदर हम करते रहेंगे।

27.11.06

देश विदेश का साहित्य हिन्दी में

अनुनाद भाई ने एक बहुत शुभ समाचार चिठ्ठाकार समूह पर भेजा। इसे पढ़ कर दिल प्रसन्न हो गया। सोचा कि इस लिंक को सहेज लूं, बाद में काम आएगा।

समाचार दुर्भाग्य से अंग्रेजी में ही मिला, हिन्दी में नहीं मिल पाया। इसलिये जो पाठक अंग्रेजी नहीं पढ़ सकते, उनको बता दूं कि अब देश विदेश का साहित्य हिन्दी में पहले की अपेक्षा अधिक मिलेगा क्योंकि अनुवादक लोग बढ़ रहे हैं। एक और अच्छी बात ये है कि ये अनुवाद मूल भाषा से हिन्दी में सीधे हो रहे हैं, अंग्रेजी के रास्ते नहीं - इससे अनुवाद की गुणवत्ता श्रेष्ठतर ही होगी।

पूरा समाचार यहां पढ़ें।

24.11.06

यही लैंग्वेज है नए भारत की

बाल मुकुन्द जी का लिखा यह लेख 13 नवम्बर 2006 के नवभारत टाइम्स में छपा था। मूल लेख यहां देखें।

हमारे सामने राजधानी से प्रकाशित होने वाले हिंदी के सभी प्रमुख अखबार रखे हैं। दैनिक हिंदुस्तान के पहले पन्ने पर एक शीर्षक है 'वीवीआईपी नातियों की सुरक्षा कड़ी।' दूसरा शीर्षक है 'पीएम सुरक्षा में गड़बड़ी पर दो की छुट्टी।' भीतर के पन्ने पर एक शीर्षक है 'थीम वेडिंग के बढ़ते चलन से एंटरटेनमेंट कंपनियों की चांदी।' वीवीआईपी के बदले अति महत्वपूर्ण, पीएम की जगह प्रमं, वेडिंग की जगह शादी और एंटरटेनमेंट की जगह मनोरंजन लिखा जा सकता था, लेकिन नहीं लिखा गया, क्योंकि ये सभी विकल्प आसान हैं, प्रचलित हैं और शीर्षक में पॉइंट वगैरह के हिसाब से फिट बैठते हैं।

अंग्रेजी शब्दों या एब्रिविएशन का यह इस्तेमाल सिर्फ इसी अखबार में नहीं हुआ है। जागरण ने लिखा है 'सीरियल किलर्स से गांव ने नाता तोड़ा' और 'आतंकी हमले की आशंका से हाई अलर्ट।' जनसत्ता का शीर्षक है 'छुट्टी के कारण सीलिंग नहीं हुई।' अखबार अब डब्ल्यूटीओ, एसईजेड, थर्ड राउंड, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और केमिकल मार्केट जैसे जुमलों का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।

आज से पांच साल पहले नवभारत टाइम्स ने जब अपने शीर्षकों और खबरों में अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन को ज्यों का त्यों रख देने का प्रयोग शुरू किया था, तब इस पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि हम हिंदी का सत्यानाश कर रहे हैं। कुछ ने कहा कि जिन शब्दों के लिए हिंदी में विकल्प हैं या बनाए जा सकते हैं, उन्हें जबरन ठूंसने की कोशिश गलत है। स्टेशन और रेल जैसे जो शब्द हिंदी में रच-बस चुके हैं, उन्हीं के प्रयोग तक सीमित रहना चाहिए। पांच दशक पहले डॉ. रघुवंश जैसे विद्वान 'रेल' और 'स्टेशन' जैसे शब्दों के लिए भी तैयार नहीं थे। कुछ लोगों ने 'लौह पथगामिनी' और 'धूम्र शकट विरामालय' जैसे विकल्प भी बनाए थे। खैर, वे चले नहीं। विद्वान लोग अभी हिंदी में रेल और स्टेशन को पचा हुआ घोषित करना ही चाहते थे कि लोकल, ब्लू लाइन और मेट्रो जैसी चीजें धड़धड़ाती हुई घुस गईं।

बहरहाल हमने उन आलोचनाओं का कोई जवाब नहीं दिया और न ही अपनी राह बदली। खबरों को अपने पाठकों तक पहुंचाने के लिए जैसी भाषा हमें कारगर लगी, हम उसका प्रयोग करते रहे। इस पांच साल के दौरान ज्यादातर अखबार उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं। अब अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन का वैसा विरोध नहीं हो रहा है, जैसा उस समय हो रहा था। सीपीआई और सीपीएम को भाकपा और माकपा या हाई कोर्ट को उच्च न्यायालय लिखने जैसा आग्रह अब कोई नहीं करता।

नवभारत टाइम्स की तर्ज पर राजधानी के दूसरे हिंदी अखबारों में जो बदलाव आया है उसके लिए यह सोचना शेखचिल्लीपना होगा कि हमारा अखबार इतना ताकतवर और प्रभावशाली है कि इसने इन पांच वर्षों में हिंदी भाषा की पूरी तस्वीर बदल दी और इसी वजह से दूसरे अखबारों को नवभारत टाइम्स का अनुगामी बनना पड़ा। हमें ऐसा कोई भ्रम नहीं है। किसी भाषा को बनाने-संवारने का काम पूरा समाज करता है और उसकी शक्ल बदलने में कई-कई पीढि़यां लग जाती हैं। लेकिन इस बात का श्रेय नवभारत टाइम्स को जरूर मिलना चाहिए कि उसने उस बदलाव को सबसे पहले देखा और पहचाना, जो पाठकों की दुनिया में आ रहा है। दूसरे अखबारों को उस बदलाव के दबाव की वजह से नवभारत टाइम्स के रास्ते पर चलना पड़ा, यह उनके लिए चॉइस की बात नहीं थी।

अंग्रेजी आज की जरूरत है। यही वह खिड़की या दरवाजा है, जिसके द्वारा हम बाहर की दुनिया देख सकते हैं या बाहर की रोशनी भीतर ला सकते हैं। संभव है कि किसी ऊंची डिग्री के बावजूद आज नौकरी नहीं मिले, लेकिन सिर्फ अंग्रेजी की बदौलत नौकरी मिल सकती है। कारण जो भी हों, अंग्रेजी पूरी दुनिया के लिए एक तरह से लिंक लैंग्वेज का काम कर रही है। हमें और हमारे बच्चों को इसकी पढ़ाई करनी ही होगी- चाहे इसे फिजिक्स, केमिस्ट्री की तरह पढ़ें या हिंदी-उर्दू-संस्कृत की तरह।

आज का परिदृश्य देखें। देश में बेरोजगारी ९.२ प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि प्रफेशनल लोगों की बेहद कमी है। हमारे पास पर्याप्त डॉक्टर, इंजीनियर और आईटी प्रफेशनल नहीं हैं। अमेरिका प्रति वर्ष दस लाख की आबादी पर लगभग साढ़े सात सौ आईटी प्रफेशनल तैयार करता है और चीन पांच सौ, लेकिन भारत सिर्फ दो सौ। क्या बिना अंग्रेजी के यह पढ़ाई की जा सकती है? भविष्य में अंग्रेजी के बिना साहित्य सृजन, पठन-पाठन, खेती-किसानी और मजदूरी हो सकेगी, लेकिन इन क्षेत्रों में प्रतिष्ठा नहीं होगी। इनमें रोजगार की तेज वृद्धि की उम्मीद भी नहीं दिखती। जिन क्षेत्रों में नौकरी, धन और प्रतिष्ठा होगी वे एविएशन, बैंकिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईटी, फार्मा और रिटेलिंग जैसे क्षेत्र होंगे, जहां अंग्रेजी की जरूरत होगी। विदेश जाने और देश में भी ऊंची पढ़ाई के लिए अंग्रेजी की ही जरूरत होगी। इसलिए यदि अपने युवाओं को ग्लोबल बनाना है, तो बेहतर है हम उन्हें शुरू से ही अंग्रेजी पढ़ाएं।

आज जब हमारा देश दुनिया के सबसे जवान देशों में से एक है, यहां जवान लोगों के लिए रोजगार नहीं है। इस देश की तीन चौथाई आबादी की उम्र ४० साल से कम है। लेकिन जनगणना रिपोर्ट यह भी बताती है कि १९९१ में यहां १३.८ करोड़ बेरोजगार थे, जो २००१ तक आते-आते ४४.५ करोड़ हो गए। आज देश में बेरोजगारी की दर १०.१ प्रतिशत है, लेकिन ग्रैजुएट बेरोजगारी की दर १७.२ प्रतिशत है। यहां ४० प्रतिशत ग्रैजुएट और ३२ प्रतिशत टेक्निकल ग्रैजुएट बेकार बैठे हैं। इन बेरोजगार ग्रैजुएट्स के जो सहपाठी आज नौकरियों में बैठे हैं, उसका एक बड़ा कारण अंग्रेजी ही है।

दिक्कत यह है कि अंग्रेजी का जिक्र आते ही हम दोहरे मानदंड का शिकार हो जाते हैं। हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डालना चाहता है, लेकिन सामाजिक तौर पर अंग्रेजी के महत्व का विरोध करता है। बातचीत में ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलता है, लेकिन हिंदी के अखबार में अंग्रेजी के शब्द देख कर नाराज हो जाता है। उसकी खुद की जिंदगी में पैंट, शर्ट, टाई, हलो, हाय शामिल हो जाए तो अच्छा है, लेकिन अखबार की भाषा नहीं बदले। घर से बाहर निकलते समय अंग्रेजी की पत्रिका कांख में दबा लेता है, लेकिन दूसरों को भाषा की सेवा करते रहने का उपदेश देता है। इस दोहरेपन से हम जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना अच्छा होगा।

4.11.06

मेरा पीड़ादायक अनुभव

दिल्ली से डेनमार्क लौट आया हूं। अपने पुत्र विष्णु को पूर्वी दिल्ली के किसी अच्छे हिन्दी माध्यम विद्यालय में दाखिल करवाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया। अपने घर के नजदीक वसुन्धरा एन्कलेव इलाके के सब विद्यालयों में घूमा, पर मुझे एक भी हिन्दी माध्यम विद्यालय नहीं मिला। सभी अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा दे रहे हैं। नोएडा में प्रयास किया तो सैक्टर 12 में विद्या भारती द्वारा संचालित एक हिन्दी माध्यम विद्यालय मिला, लेकिन उसकी बस वसुन्धरा एन्कलेव में नहीं आती। मेरी पत्नी, जिसे दिल्ली में मेरी अनुपस्थिति में 2 महीने बिताने हैं, को हर रोज विष्णु को छोड़ने जाना बहुत असुविधाजनक हो जाता। इसलिए मन मार कर विष्णु को घर के नजदीक वसुन्धरा एन्कलेव में ही एक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में दाखिला करवा दिया। विष्णु को होने वाली दिक्कतों का हमें भली भान्ति अन्दाजा है क्योंकि आज की तारीख में विष्णु को A, B, C, D के अतिरिक्त बिल्कुल अंग्रेजी नहीं आती। गिनती भी उसे हिन्दी में ही आती है। परन्तु कोई अन्य हल नहीं दिखाई दिया जिससे विष्णु की शिक्षा तुरन्त शुरू हो सके।
अपनी पीड़ा को शब्दों में कैसे बयान करूं? दिल्ली की गर्मी में बच्चों को टाई लगाकर विद्यालय जाते हुए देखना अपने आप में एक श्राप है। उस पर अंग्रेजी माध्यम से मिलने वाली अधकचरी शिक्षा किसी भी प्रकार मुझे अपने पुत्र के बारे में निश्चिन्त नहीं कर पा रही है।
विष्णु को तो अगले साल हिन्दी माध्यम के विद्यालय में ही भेजूंगा। साथ ही मैंने निश्चय किया है कि
1. ज्यादा से ज्यादा लोगों को मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के लाभों से परिचित करवाऊंगा।
2. स्वयं एक उत्तम हिन्दी माध्यम विद्यालय की स्थापना करके एक उदाहरण प्रस्तुत करूंगा।