12.2.08

इकत्तीस की हो गयी आज! जन्मदिन मुबारक!!

आभा, तुम्हे जन्मदिन की बहुत बधाइयां। आज इकत्तीस वर्ष की हो गयी हो, जिस में से आठ साल तुम ने मुझे दिए हैं।

२८ अक्तूबर, १९९९ - कल की ही बात लगती है, जब हम पहली बार मिले थे। तब से लेकर अब तक ये ख्याल अनेकों बार मेरे मन में आया है कि काश! हम पहले मिलते तो मैं तुम्हारा बचपन भी देख पाता। जवानी का बचपना तो देख लिया, बचपन का बचपना रह गया। खैर ...

हमारे मिलने के एक सप्ताह बाद ही मुझे TCS में समय से पहले पदोन्नति मिल गयी। तुम मेरे लिए भाग्यशाली साबित हुयी। फिर शादी के बाद तुम्हारे साथ देश-विदेश देखने को मिला। तुमने मुझे घर दिया, और दो बहुत ही special बच्चे विष्णु व गरिमा दिए। विष्णु की देखभाल के लिए तुमने TCS की अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूर्णकालिक गृहस्थी में ध्यान लगा लिया। समय कि आवश्यकता के अनुसार तुमने जो निर्णय लिया, उस पर मुझे तुम पर गर्व है। बच्चों के आत्मनिर्भर बनने के बाद तुम अपना कैरीअर आगे बढाओ, यह हम दोनो की ही इच्छा है।

तुम्हारी सब से खास बात जो मुझे लगती है कि तुम मेरी धर्म पत्नी हो, मात्र पत्नी नहीं। धर्म के मार्ग पर चलाने वाली, धर्म की व्याख्या करने वाली और निर्भीक व स्पष्ट राय देने वाली आभा - तुमने मुझे सदा सही राह दिखाई है। अपनी कमजोरियों के वशीभूत मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी, जिनका मुझे असीम दुःख होता है। आर्मी कैंटीन का सामान बरतना और हिन्दी माध्यम इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने कि राह में शुरूआती असफलताओं से घबरा कर पलायन - इन दोनों गलतियों से मैं दिन रात कष्ट पाता हूँ क्योंकि इन घटनाओं ने मेरे आत्म विश्वास को भीतर से खोखला कर दिया है। लेकिन तुमने दोनों बार मुझे न केवल सही राह दिखाई थी, बल्कि सही राह चुनने का दबाव भी बनाया था।

शादी के बाद मैं तुम्हें जीवन के सुब सुख देना चाहता था। मुझे याद है मैंने तुम्हे एक कार्ड दिया था, जिसमे लिखा था - "I want a life for us which will be better than all our previous lives". हमने कोशिश भी की लेकिन सच्चाई का मार्ग छोड़ते ही हमारे सुख के दिन छिन गए। भोग बढ़ गया और भजन छूट गया। आज के इस महत्त्वपूर्ण दिन मैं तुम्हे यही उपहार देना चाहता हूँ कि मैं क्रोध, आलस्य और पर-उपहास - ये तीन दुर्गुण छोड़ रहा हूँ। आशा है कि तुम्हें यह उपहार अच्छा लगेगा।

आज के दिन स्वामी विवेकानन्द की लिखी इस कविता के माध्यम से तुम्हे शुभकामनाएं देता हूँ:

The mother's heart, the hero's will,
The softest flower's sweetest feel;
The charm and force that ever sway
The altar fire's flaming play;
The strength that leads, in love obeys;
Far-reaching dreams, and patient ways,
Eternal faith in Self, in all
The sight Divine in great in small;
All these, and more than I could see
Today may "Mother" grant to thee।