15.12.06

हाफ पैन्ट वाले कहना असभ्यता का परिचय

वर्तमान समाज में से विनम्रता का लोप इस कदर हो गया है कि वैचारिक असहमति होने मात्र से लोग गाली-गलौज पर उतर आते हैं। काफी हद तक तो इस प्रकार का असंयमित व्यवहार राजनेता ही करते हुए पाए जाते है। पर अभी हाल ही में एक अराजनैतिक सज्जन गान्धी जी को बुड्डा कहते हुए मिले। उम्र के लिहाज से व बड़े होने के नाते गान्धी जी को बुड्डा कहना असभ्यता ही कही जा सकती है। कर्मों के लिहाज से गान्धी जी बुड्डे हुए ही नहीं; वो चिर युवा थे। जीवन पर्यन्त युवकों को भी शर्मिन्दा कर जाए ऐसी कर्मठता से काम करते रहे।

खैर यह लेख लिखने का उद्देश्य सिर्फ यह याद दिलाना है कि हम वैचारिक मतभेदों को व्यक्तिगत मतभेदों का रूप देने से बचें। कहा जाता है कि जब गम्भीर चर्चाओं के दौरान आप व्यक्तिगत हमला करने लगते हो तो इसका अर्थ है कि आप चर्चा में हार चुके हो। जैसे खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचती है वैसे आप सामने वाले को नोचने लगते हो।

हाल ही में एक मित्र ने ध्यान दिलाया कि एक जिम्मेदार व्यक्ति जो राजनीति में भी सक्रिय हैं वो राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ को हाफ पैण्ट कह कर सम्बोधित करते हैं। संघ को काफी नजदीक से मैंने भी देखा है व मेरी दृष्टि में संघ के लिए बहुत आदर है। राष्ट्रभक्ति, समाज सेवा, किसी आपदा के समय पीड़ितों की सेवा, वनवासी क्षेत्रों में सेवा कार्य, हिन्दू समाज के उत्थान के लिए अहर्निश प्रयत्नशील, इत्यादि अनेक प्रकल्पों में आदरणीय कार्य करने का श्रेय इस संगठन को दिया जा सकता है। ऐसे सैकड़ों स्वयंसेवक आज भी सेवारत हैं जिन्होंने अपना परिवार छोड़कर आजीवन अविवहित रहते हुए देश सेवा करने का व्रत लिया हुआ है। जब कोई देश के राजनेताओं से त्रस्त होकर कहता है कि भारत को तो भगवान ही चला रहा है तो मेरे मन में इन्हीं सर्वत्यागी व दृढ़निश्चयी जवानों का खयाल आता है। ऐसे स्वयंसेवी लोगों को हाफ पैण्ट कह कर सम्बोधित करना अशोभनीय ही नहीं असभ्य भी है। फिर ऐसी असभ्यता प्रतिक्रियाओं को भी जन्म देती है जिससे समाज में आपसी सौहार्द घटने लगता है।

4.12.06

हमें मदद चाहिए

भाषा एवं शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करते समय मन में अनेक प्रश्नों का जन्म हुआ। जैसे कि −

• भारत में शिक्षा के लिए मातृभाषा का माध्यम ज्यादा ठीक है या अंग्रेजी (विदेशी) भाषा का माध्यम बेहतर है?
• क्या मातृभाषा में शिक्षा पाने से गणित एवं विज्ञान विषयों को समझने में सहायता मिलती है?
• क्या अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना अंग्रेजी भाषा पर मजबूत पकड़ की गारण्टी है?
• क्या अंग्रेजी शिक्षा को अनिवार्य बनाने से बच्चों की शिक्षा पर खराब असर पड़ सकता है?

इन प्रश्नों का समाधान करने के लिए हमें निम्नलिखित जानकारी की आवश्यकता है। यह काम अकेले हमारे बस का नहीं है, इसलिए यदि आप मदद कर सकते हैं तो कृपया सम्पर्क करें।

1) पिछले दस वर्षों के दौरान भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs) में प्रथम 10 स्थान पाने वाले छात्रों को किस माध्यम में शिक्षा मिली थी? यदि एक से अधिक माध्यमों से शिक्षा मिली हो तो पांचवी से दसवीं कक्षा के छ: वर्षों के दौरान अधिकांश शिक्षा जिस माध्यम से मिली थी, उसी को शिक्षा का माध्यम माना जाए।

2) ऊपर लिखी जानकारी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs) में ही प्रथम 50 स्थान पाने वाले छात्रों के लिए भी एकत्रित करनी है।

3) ऊपर लिखी जानकारी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) या केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) मेडिकल प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों की भी एकत्रित करनी है।

4) विज्ञान व गणित के शिक्षकों का अनुभव क्या कहता है − क्या शिक्षा के माध्यम से छात्रों की योग्यता पर असर पड़ता है?

5) यदि आप किसी ऐसे छात्र को जानते हैं जो पढ़ तो अपनी मातृभाषा में रहा है, लेकिन अंग्रेजी विषय में कमजोरी के कारण पढ़ाई से विरक्त हो रहा है, तो कृपया हमें उसका नाम व पता भेजिए।

6) ऐसे छात्रों की कमी नहीं जो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने के बावजूद अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाते। ऐसे छात्रों से बात करके उनसे पूछना है कि इस का क्या कारण है। यह कारण, छात्र का नाम, पता व कक्षा हमें भेजिए। इस जानकारी के लिए वें ही छात्र चुने जाएं जो कम से कम 5 वर्ष अंग्रेजी माध्यम में पढ़े हों।

7) यदि इस विषय पर पहले से ही कोई भारतीय अथवा विदेशी सर्वेक्षण हुआ हो कृपया उसकी जानकारी भी हमें भेजें।

इस जानकारी के एकत्रित होने पर हम इसे पुस्तक के रूप में व इन्टरनेट पर प्रकाशित करेंगे। हमारा विश्वास है कि यह जानकारी छात्रों व अभिभावकों के लिए अत्यन्त लाभकारी सिद्ध होगी।

30.11.06

महापुरूषों में प्रतिस्पर्धा

शहीद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु व चन्द्रशेखर आजाद की शहादत के ७५ वर्ष पूरे होने पर नवनिर्माण के ३ विशेषांक इस वर्ष फरवरी, मार्च अप्रैल माह में निकले थे। इन विशेषांकों के लिये मैंने यह लेख लिखा था। सृजनशिल्पी जी ने "गाँधी की महानता पर उठते प्रश्न" लेख में जो प्रश्न प्रस्तुत किये हैं और स्वामी रामदेव, ओशो आदि महापुरुषों के विचार लिखे हैं, उस परिपेक्ष्य में यह लेख असामयिक नहीं होगा।
मेरा मानना है कि गान्धीवाद के नाम से किसी वाद को रचने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि गान्धी जी ने कोई नई बात नहीं बताई थी। सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पंचायती राज व्यवस्था आदि बातें भारतीय संस्कृति में सदा से रही हैं। गांधी जी ने सिर्फ उन को अपने तरीके से पुनः स्थापित करने का प्रयास किया था। उस विषय पर फिर कभी लिखूंगा।

महापुरूषों व आम इन्सानो में एक अन्तर यह होता है कि महापुरूष निन्दा व ईर्ष्या के भाव नहीं रखते, जबकि एक सामान्य व्यक्ति इन दुगुर्णों से ग्रस्त रहता है। आज कल गान्धी जी व भगत सिंह जैसे महापुरूषों की तुलना करना व दोनों में से किसी एक को श्रेष्ठ बताने का रिवाज सा चल पड़ा है। परन्तु इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि इन महापुरूषों में मतभेद तो अनेक थे, मगर किसी ने भी दूसरे व्यक्ति की न तो निन्दा की और न ही किसी प्रकार की स्पर्धा व ईर्ष्या को मन में स्थान दिया।

शहीद सुखदेव ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही गान्धी जी को एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र में गान्धी जी के विचारों व कार्यप्रणाली से मतभिन्नता ही भरी हुई थी, परन्तु सुखदेव जी पत्र का आरंभ “परम कृपालु महात्मा जी” के सम्बोधन से प्रारम्भ करते हैं। पत्र में सुखदेव जी ने गान्धी−इर्विन समझौते के बाद गान्धी जी की उन प्रार्थनाओं के औचित्य पर सवाल उठाए जिनमें गान्धी जी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को बन्द करने का आग्रह किया था। अत्यन्त शालीन भाषा में लिखे इस पत्र का अन्त सुखदेव जी “आपका, अनेकों में से एक” लिख कर करते हैं।

ठीक इसी प्रकार गान्धी जी जब इन शहीदों के बारे में बोलते हैं तो उनकी बातों से इन वीरों के प्रति आदर ही झलकता है, और विरोध करते हैं तो मात्र ‘हिंसा’ की मानसिकता का। 29 मार्च 1931 को ‘भगत सिंह’ शीर्षक से नवजीवन में प्रकाशित एक लेख में गान्धी जी जहां एक ओर गान्धी जी भगत सिंह से मतभेद प्रगट करते हैं,वहीं दूसरी ओर लिखते हैं कि “इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।” इसी लेख में गान्धी जी लिखते हैं कि भगत सिंह हिंसा को अपना धर्म नहीं मानता था; वह अन्य कोई उपाय न देख कर ही खून करने को तैयार हुआ था।

हम पाते हैं कि महापुरूष मतभेद तो प्रकट करते हैं, परन्तु व्यक्तिगत विरोधों का उनकी दृष्टि में कोई स्थान नहीं होता। ऐसे ही गुण उन्हें जनसाधारण की दृष्टि में महापुरूष बनाते हैं।

भारतीय संस्कार भी हमें यह सिखाते हैं कि “पापी से भी घृणा न करो”। फिर यह कैसे हो गया कि हम लोग जिस व्यक्ति के विचारों व कृत्यों से सहमत नहीं होते, उससे विद्वेष पाल लेते हैं। भगत सिंह की अतिशय देशभक्ति व 23 वर्ष की अल्पायु में अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर कर देना ही उनके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न करने के लिये काफी है − चाहे हम भगत सिंह की कार्य प्रणाली से सहमत न हों। उसी प्रकार गान्धी जी द्वारापैदा की गई जनचेतना, हर प्रकार के भौतिक सुखों का त्याग तथा अतिशय भारत−प्रेम भी उन्हें श्रद्धेय ही बनाते हैं − चाहे हम उनकी कार्य प्रणाली से सहमत न हों।

आइये, हम प्रण करें कि कभी दो व्यक्तियों की तुलना नहीं करेंगे। कभी किसी व्यक्ति की निन्दा भी नहीं करेंगे। महापुरूषों के गुण उन्हें सदैव आदरणीय बनाते हैं, चाहे उनकी कार्य प्रणाली से हम सहमत न हो पाएं। इसलिए हर मतभेद के बावजूद उनके गुणों का आदर हम करते रहेंगे।

27.11.06

देश विदेश का साहित्य हिन्दी में

अनुनाद भाई ने एक बहुत शुभ समाचार चिठ्ठाकार समूह पर भेजा। इसे पढ़ कर दिल प्रसन्न हो गया। सोचा कि इस लिंक को सहेज लूं, बाद में काम आएगा।

समाचार दुर्भाग्य से अंग्रेजी में ही मिला, हिन्दी में नहीं मिल पाया। इसलिये जो पाठक अंग्रेजी नहीं पढ़ सकते, उनको बता दूं कि अब देश विदेश का साहित्य हिन्दी में पहले की अपेक्षा अधिक मिलेगा क्योंकि अनुवादक लोग बढ़ रहे हैं। एक और अच्छी बात ये है कि ये अनुवाद मूल भाषा से हिन्दी में सीधे हो रहे हैं, अंग्रेजी के रास्ते नहीं - इससे अनुवाद की गुणवत्ता श्रेष्ठतर ही होगी।

पूरा समाचार यहां पढ़ें।

24.11.06

यही लैंग्वेज है नए भारत की

बाल मुकुन्द जी का लिखा यह लेख 13 नवम्बर 2006 के नवभारत टाइम्स में छपा था। मूल लेख यहां देखें।

हमारे सामने राजधानी से प्रकाशित होने वाले हिंदी के सभी प्रमुख अखबार रखे हैं। दैनिक हिंदुस्तान के पहले पन्ने पर एक शीर्षक है 'वीवीआईपी नातियों की सुरक्षा कड़ी।' दूसरा शीर्षक है 'पीएम सुरक्षा में गड़बड़ी पर दो की छुट्टी।' भीतर के पन्ने पर एक शीर्षक है 'थीम वेडिंग के बढ़ते चलन से एंटरटेनमेंट कंपनियों की चांदी।' वीवीआईपी के बदले अति महत्वपूर्ण, पीएम की जगह प्रमं, वेडिंग की जगह शादी और एंटरटेनमेंट की जगह मनोरंजन लिखा जा सकता था, लेकिन नहीं लिखा गया, क्योंकि ये सभी विकल्प आसान हैं, प्रचलित हैं और शीर्षक में पॉइंट वगैरह के हिसाब से फिट बैठते हैं।

अंग्रेजी शब्दों या एब्रिविएशन का यह इस्तेमाल सिर्फ इसी अखबार में नहीं हुआ है। जागरण ने लिखा है 'सीरियल किलर्स से गांव ने नाता तोड़ा' और 'आतंकी हमले की आशंका से हाई अलर्ट।' जनसत्ता का शीर्षक है 'छुट्टी के कारण सीलिंग नहीं हुई।' अखबार अब डब्ल्यूटीओ, एसईजेड, थर्ड राउंड, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और केमिकल मार्केट जैसे जुमलों का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।

आज से पांच साल पहले नवभारत टाइम्स ने जब अपने शीर्षकों और खबरों में अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन को ज्यों का त्यों रख देने का प्रयोग शुरू किया था, तब इस पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि हम हिंदी का सत्यानाश कर रहे हैं। कुछ ने कहा कि जिन शब्दों के लिए हिंदी में विकल्प हैं या बनाए जा सकते हैं, उन्हें जबरन ठूंसने की कोशिश गलत है। स्टेशन और रेल जैसे जो शब्द हिंदी में रच-बस चुके हैं, उन्हीं के प्रयोग तक सीमित रहना चाहिए। पांच दशक पहले डॉ. रघुवंश जैसे विद्वान 'रेल' और 'स्टेशन' जैसे शब्दों के लिए भी तैयार नहीं थे। कुछ लोगों ने 'लौह पथगामिनी' और 'धूम्र शकट विरामालय' जैसे विकल्प भी बनाए थे। खैर, वे चले नहीं। विद्वान लोग अभी हिंदी में रेल और स्टेशन को पचा हुआ घोषित करना ही चाहते थे कि लोकल, ब्लू लाइन और मेट्रो जैसी चीजें धड़धड़ाती हुई घुस गईं।

बहरहाल हमने उन आलोचनाओं का कोई जवाब नहीं दिया और न ही अपनी राह बदली। खबरों को अपने पाठकों तक पहुंचाने के लिए जैसी भाषा हमें कारगर लगी, हम उसका प्रयोग करते रहे। इस पांच साल के दौरान ज्यादातर अखबार उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं। अब अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन का वैसा विरोध नहीं हो रहा है, जैसा उस समय हो रहा था। सीपीआई और सीपीएम को भाकपा और माकपा या हाई कोर्ट को उच्च न्यायालय लिखने जैसा आग्रह अब कोई नहीं करता।

नवभारत टाइम्स की तर्ज पर राजधानी के दूसरे हिंदी अखबारों में जो बदलाव आया है उसके लिए यह सोचना शेखचिल्लीपना होगा कि हमारा अखबार इतना ताकतवर और प्रभावशाली है कि इसने इन पांच वर्षों में हिंदी भाषा की पूरी तस्वीर बदल दी और इसी वजह से दूसरे अखबारों को नवभारत टाइम्स का अनुगामी बनना पड़ा। हमें ऐसा कोई भ्रम नहीं है। किसी भाषा को बनाने-संवारने का काम पूरा समाज करता है और उसकी शक्ल बदलने में कई-कई पीढि़यां लग जाती हैं। लेकिन इस बात का श्रेय नवभारत टाइम्स को जरूर मिलना चाहिए कि उसने उस बदलाव को सबसे पहले देखा और पहचाना, जो पाठकों की दुनिया में आ रहा है। दूसरे अखबारों को उस बदलाव के दबाव की वजह से नवभारत टाइम्स के रास्ते पर चलना पड़ा, यह उनके लिए चॉइस की बात नहीं थी।

अंग्रेजी आज की जरूरत है। यही वह खिड़की या दरवाजा है, जिसके द्वारा हम बाहर की दुनिया देख सकते हैं या बाहर की रोशनी भीतर ला सकते हैं। संभव है कि किसी ऊंची डिग्री के बावजूद आज नौकरी नहीं मिले, लेकिन सिर्फ अंग्रेजी की बदौलत नौकरी मिल सकती है। कारण जो भी हों, अंग्रेजी पूरी दुनिया के लिए एक तरह से लिंक लैंग्वेज का काम कर रही है। हमें और हमारे बच्चों को इसकी पढ़ाई करनी ही होगी- चाहे इसे फिजिक्स, केमिस्ट्री की तरह पढ़ें या हिंदी-उर्दू-संस्कृत की तरह।

आज का परिदृश्य देखें। देश में बेरोजगारी ९.२ प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि प्रफेशनल लोगों की बेहद कमी है। हमारे पास पर्याप्त डॉक्टर, इंजीनियर और आईटी प्रफेशनल नहीं हैं। अमेरिका प्रति वर्ष दस लाख की आबादी पर लगभग साढ़े सात सौ आईटी प्रफेशनल तैयार करता है और चीन पांच सौ, लेकिन भारत सिर्फ दो सौ। क्या बिना अंग्रेजी के यह पढ़ाई की जा सकती है? भविष्य में अंग्रेजी के बिना साहित्य सृजन, पठन-पाठन, खेती-किसानी और मजदूरी हो सकेगी, लेकिन इन क्षेत्रों में प्रतिष्ठा नहीं होगी। इनमें रोजगार की तेज वृद्धि की उम्मीद भी नहीं दिखती। जिन क्षेत्रों में नौकरी, धन और प्रतिष्ठा होगी वे एविएशन, बैंकिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईटी, फार्मा और रिटेलिंग जैसे क्षेत्र होंगे, जहां अंग्रेजी की जरूरत होगी। विदेश जाने और देश में भी ऊंची पढ़ाई के लिए अंग्रेजी की ही जरूरत होगी। इसलिए यदि अपने युवाओं को ग्लोबल बनाना है, तो बेहतर है हम उन्हें शुरू से ही अंग्रेजी पढ़ाएं।

आज जब हमारा देश दुनिया के सबसे जवान देशों में से एक है, यहां जवान लोगों के लिए रोजगार नहीं है। इस देश की तीन चौथाई आबादी की उम्र ४० साल से कम है। लेकिन जनगणना रिपोर्ट यह भी बताती है कि १९९१ में यहां १३.८ करोड़ बेरोजगार थे, जो २००१ तक आते-आते ४४.५ करोड़ हो गए। आज देश में बेरोजगारी की दर १०.१ प्रतिशत है, लेकिन ग्रैजुएट बेरोजगारी की दर १७.२ प्रतिशत है। यहां ४० प्रतिशत ग्रैजुएट और ३२ प्रतिशत टेक्निकल ग्रैजुएट बेकार बैठे हैं। इन बेरोजगार ग्रैजुएट्स के जो सहपाठी आज नौकरियों में बैठे हैं, उसका एक बड़ा कारण अंग्रेजी ही है।

दिक्कत यह है कि अंग्रेजी का जिक्र आते ही हम दोहरे मानदंड का शिकार हो जाते हैं। हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डालना चाहता है, लेकिन सामाजिक तौर पर अंग्रेजी के महत्व का विरोध करता है। बातचीत में ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलता है, लेकिन हिंदी के अखबार में अंग्रेजी के शब्द देख कर नाराज हो जाता है। उसकी खुद की जिंदगी में पैंट, शर्ट, टाई, हलो, हाय शामिल हो जाए तो अच्छा है, लेकिन अखबार की भाषा नहीं बदले। घर से बाहर निकलते समय अंग्रेजी की पत्रिका कांख में दबा लेता है, लेकिन दूसरों को भाषा की सेवा करते रहने का उपदेश देता है। इस दोहरेपन से हम जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना अच्छा होगा।

4.11.06

मेरा पीड़ादायक अनुभव

दिल्ली से डेनमार्क लौट आया हूं। अपने पुत्र विष्णु को पूर्वी दिल्ली के किसी अच्छे हिन्दी माध्यम विद्यालय में दाखिल करवाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया। अपने घर के नजदीक वसुन्धरा एन्कलेव इलाके के सब विद्यालयों में घूमा, पर मुझे एक भी हिन्दी माध्यम विद्यालय नहीं मिला। सभी अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा दे रहे हैं। नोएडा में प्रयास किया तो सैक्टर 12 में विद्या भारती द्वारा संचालित एक हिन्दी माध्यम विद्यालय मिला, लेकिन उसकी बस वसुन्धरा एन्कलेव में नहीं आती। मेरी पत्नी, जिसे दिल्ली में मेरी अनुपस्थिति में 2 महीने बिताने हैं, को हर रोज विष्णु को छोड़ने जाना बहुत असुविधाजनक हो जाता। इसलिए मन मार कर विष्णु को घर के नजदीक वसुन्धरा एन्कलेव में ही एक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में दाखिला करवा दिया। विष्णु को होने वाली दिक्कतों का हमें भली भान्ति अन्दाजा है क्योंकि आज की तारीख में विष्णु को A, B, C, D के अतिरिक्त बिल्कुल अंग्रेजी नहीं आती। गिनती भी उसे हिन्दी में ही आती है। परन्तु कोई अन्य हल नहीं दिखाई दिया जिससे विष्णु की शिक्षा तुरन्त शुरू हो सके।
अपनी पीड़ा को शब्दों में कैसे बयान करूं? दिल्ली की गर्मी में बच्चों को टाई लगाकर विद्यालय जाते हुए देखना अपने आप में एक श्राप है। उस पर अंग्रेजी माध्यम से मिलने वाली अधकचरी शिक्षा किसी भी प्रकार मुझे अपने पुत्र के बारे में निश्चिन्त नहीं कर पा रही है।
विष्णु को तो अगले साल हिन्दी माध्यम के विद्यालय में ही भेजूंगा। साथ ही मैंने निश्चय किया है कि
1. ज्यादा से ज्यादा लोगों को मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के लाभों से परिचित करवाऊंगा।
2. स्वयं एक उत्तम हिन्दी माध्यम विद्यालय की स्थापना करके एक उदाहरण प्रस्तुत करूंगा।

14.9.06

पूर्वी दिल्ली में हिन्दी माध्यम विद्यालय

आगामी अक्तूबर में मैं 3 सप्ताह के लिए भारत आ रहा हूं। इस यात्रा का एक मुख्य उद्देश्य है अपने पौने चार साल के बेटे विष्णु को किसी अच्छे हिन्दी माध्यम के विद्यालय में दाखिला दिलवाना। मेरी इच्छा यह है कि वो छ: महीने यानि अक्तूबर व मार्च के बीच में नर्सरी की पढ़ाई पूरी कर ले ताकि उसका एक वर्ष खराब न हो।

इस के लिए मुझे पूर्वी दिल्ली में एक अच्छे हिन्दी माध्यम विद्यालय की खोज है। अपने दिल्ली के रिश्तेदारों व मित्रों से कुछ खास जानकारी नहीं मिल पा रही है। आप में से किसी मित्र को इस बारे में कुछ जानकारी हो तो कृपया बताएं। मैं यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हो पा रहा हूं कि अब हिन्दी माध्यम में पढ़ाई करवाने के लिए मुझे अपने बेटे को दिल्ली के किसी दूसरे कोने में भेजना पड़ेगा।

क्या आप मदद कर सकते हैं?

संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) का सिद्धान्त

आजादी के 60 वर्ष पूरे होते−होते देश में भुखमरी के दर्शन होने लगे हैं। अनेक सर्वेक्षण किए गए हैं और लगभग सभी इसी बात की ओर इंगित करते हैं कि भारत में आजादी के बाद व विशेष तौर पर उदारीकरण के बाद अमीरों व गरीबों के बीच खाई बढ़ी है। करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर भुखमरी व गरीबी जनित आत्महत्याएं भी बढ़ी हैं। इन समस्याओं को लेकर जहां राजनेता वोटों की राजनीति में लगे हैं, तो दूसरी ओर नक्सलवाद सिर उठा रहा है। पड़ौसी देश नेपाल में तो माओवाद के नाम पर एक बड़ी शक्ति का उदय होता भी दिखाई दे रहा है।

भूख एवं गरीबी के कारण किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को टी•वी• पर हमारे कृषि मन्त्री चाहे सामान्य घटना बता दें, परन्तु वास्तविकता यह है कि शस्य श्यामला हमारी भारत माता में अपनी सन्तानों का पालन करने का सामर्थ्य आज भी बरकरार है। समस्या इतनी ही है कि भारत माता हमें जो कुछ भी देती है, उसे कुछ प्रभावी लोग हड़प लेते हैं और गरीब लोगों को कुछ नहीं मिल पाता।

आम तौर पर कठिन दिखने वाली समस्याओं का हल बहुत आसान होता है। इस समस्या का हल भी कुछ विशेष कठिन नहीं है। जिस किसी को भी विरासत में या उद्योग −व्यवसाय द्वारा प्रचुर सम्पत्ति मिल जाए, वह उस सम्पत्ति में से अपने गुजारे भर का लेकर शेष पर राष्ट्र का हक समझे। ऐसा करने से जहां व्यक्ति गैर−जरूरी लालच से अपनी रक्षा कर सकेगा, वहीं समाज में सम्पन्नता व भाईचारा बढ़ेगा। नक्सलवाद जैसे प्रतिक्रियावादी आन्दोलनों की आवश्यकता नहीं रह जाएगी एवं सब लोग सामूहिक विकास कर सकेंगे। ‘त्यागपूर्वक भोग भोगना’ ही संरक्षता का सिद्धान्त है।

ईशावास्योपनिषद में भी गाया गया है :
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद् धनम्।।
अथार्त् इस जगत में सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है, इसलिए त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो। धन आदि भोग्य पदार्थ किसी के भी नहीं हैं।

आजकल तो हर एक व्यक्ति पड़ौसी की चिन्ता किए बिना अपने लिए ही जीता है। सर्वकल्याणकारी नवीन जीवन पद्धति का विकास करना हो तो उसका सबसे निश्चित मार्ग संरक्षता का सिद्धान्त ही है। साम्यवाद अथवा नक्सलवाद द्वारा पोषित ऐसी जड़ समानता को भारतीय चित्त स्वीकार नहीं कर सकता जिसमें कोई अपनी योग्यताओं का पूरा उपयोग ही न कर सके। भारत में तो हर एक को करोड़ों रूपए कमाने की स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए, लेकिन इस सारे धन का उद्देश्य सर्व कल्याण में समर्पित कर देने का ही होना चाहिए।

अब प्रश्न यह है कि इस तरह के सच्चे संरक्षक (ट्रस्टी) कितने हो सकते हैं। बहुतेरे लोग इस सिद्धान्त को अव्यावहारिक मान लेते हैं। वें देख नहीं पाते कि आज भी ऐसे उदाहरणों से हमारा समाज भरा पड़ा है जो सच्चे अर्थों में ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का पालन कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी कि अगर सिद्धान्त ठीक हो तो हमें यह देखने की बजाय कि इसका पालन कितने लोग कर रहे हैं, हमें यह देखना चाहिए कि किस प्रकार इस सिद्धान्त को हम अपने जीवन में अपना सकते हैं। संख्या बल से ही हम किसी सिद्धान्त के सही या गलत होने का निर्णय नहीं कर सकते।

लोग स्वेच्छा से संरक्षक बनें तो यह बहुत अच्छा होगा। अगर वो न बनें तो मेरा खयाल है कि उन्हें संरक्षक बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए या फिर अहिंसक तरीकों द्वारा धनियों को या तो उनकी सम्पत्ति से वंचित करना चाहिए।

14.8.06

राष्ट्रपति जी द्वारा सात सूत्रीय शपथ

60वें स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में हमारे राष्ट्रपति जी ने युवाओं को सात सूत्रीय शपथ लेने का आह्वान किया है। ये शपथ है :

मैंने तो यह शपथ ले ली है। सब युवाओं से अनुरोध है कि दृढ़तापूर्वक यह शपथ लेकर राष्ट्र एवं जगत को खुशहाल बनाने की ओर अग्रसर हों।

राष्ट्रपति जी से विनम्र अनुरोध है कि वो देश के नेताओं को भी यह शपथ लेने को प्रेरित करें। कितना अच्छा हो कि आफिस आफ प्रोफिट बिल और सूचना के अधिकार वाले बिल जैसी हठधर्मिता छोड़ कर राष्ट्र निर्माण का काम करें। दोनों बिल चौथी एवं पांचवीं शपथ का उल्लंघन प्रतीत होते हैं।

11.8.06

परिचय − गुरूकुल कांगड़ी (भाग 2)

(भाग 1 में हमने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना व दैनिक चर्या के विषय में पढ़ा था। अब हम गुरूकुल के शैक्षणिक स्तर के बारे में पढ़ेंगे। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ही एक अमरीकी यात्री श्री मीरोन फिल्पस ने गुरूकुल कांगड़ी के बारे में भारतीय समाचार पत्र पायनियर में कुछ पत्र लिखे थे। प्रस्तुत लेख उन्हीं पत्रों में उपलब्ध तथ्यों पर आधारित है।)

गुरूकुल में नैतिक व धार्मिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। गुरूकुल ने इसके लिए विशेष पुस्तकें भी तैयार करवाई थी एवं कुलपति स्वामी श्रद्धानन्द स्वयं इन विषयों पर छात्रों से वार्ता करते थे। छात्रों को पवित्र संस्कृत ग्रन्थो का पठन करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता था। छात्रों की पाठ्य सामग्री व दैनिक चर्या के आधार पर कहा जा सकता है कि गुरूकुल का वातावरण वेदों व उपनिषदों से लबालब था।

तमाम धार्मिक शिक्षा के साथ−साथ गुरूकुल का आचार्यवर्ग इस बात के लिए भी सजग था कि छात्र दुनिया में निरन्तर हो रही गतिविधियों, नवीन खोजों व उपलब्धियों से अनभिज्ञ न रहें। इसके लिए छात्रों के पाठ्यक्रम में पश्चिमी साहित्य व आधुनिक विज्ञान से सम्बन्धित पुस्तकों को न केवल स्थान दिया गया बल्कि छात्रों को गुरूकुल के पुस्तकालय के माध्यम से नवीनतम पुस्तकें व पत्रिकाएं उपलब्ध भी करवाई गईं।

फिल्पस ने गुरूकुल व अन्य संस्थाओं की दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण भी किया।
  • विज्ञान - गुरूकुल के छात्र कईं वर्ष आगे हैं। भौतिकी, रसायन शास्त्र व मैकैनिक्स की अनेक गूढ़ पुस्तकों का अध्ययन गुरूकुल में होता है, अन्य संस्थानों में नहीं।
  • गणित - गुरूकुल के छात्र अन्य संस्थानों के छात्रों के समकक्ष हैं।
  • इतिहास - गुरूकुल के छात्रों ने भारतीय व ब्रिटिश इतिहास के 2000 पृष्ठ पढ़े हैं जबकि अन्य संस्थानों के छात्र 400 पृष्ठ ही पढ़ते हैं। इतिहास में यहां के छात्र अन्यत्र बी0ए0 के बराबर हैं।
  • अंग्रेजी - दसवीं में गुरूकुल के छात्र अन्य संस्थानों की दसवीं से पीछे हैं। परन्तु चौदहवीं तक पहुंचते पहुंचते वें अन्य संस्थानों की चौदहवीं के समकक्ष हो जाते हैं।
  • संस्कृत - गुरूकुल के छात्र बहुत आगे हैं। दसवीं के छात्रों की संस्कृत एम0ए0 (अंग्रेजी) के छात्रों की अंग्रेजी के बराबर की है।
  • दर्शन व तर्क शास्त्र - गुरूकुल के छात्र अन्य विद्यालयों से श्रेष्ठ हैं।

फिल्पस लिखते हैं कि गुरूकुल के छात्रों के श्रेष्ठ होने की वजहों में से एक तो शिक्षा के अनुकूल प्राकृतिक वातावरण है, दूसरे वहां के जीवन में नियमितता व अनुशासन है और तीसरे शिक्षा का माध्यम हिन्दी है जिसे भारतीय छात्र आसानी से समझकर ग्रहण कर सकते हैं। हम स्पष्ट देख सकते हैं कि गुरूकुल के संस्थापक गुरूकुल को श्रेष्ठ मार्ग पर चला पा रहे थे। यही कारण था कि महान विभूतियां जैसे महात्मा गान्धी, भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एन्ड्रयूज, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद व जवाहर लाल नेहरू गुरूकुल से विशेष स्नेह रखते थे और इसलिये उन्होंने गुरूकुल की यात्राएं भी की।

इसके बावजूद गुरूकुल को सरकारी मदद न मिल सकती थी। ऐसा नहीं था कि गुरूकुल को विदेशी सरकार से मदद की अपेक्षा थी पर सामान्य तर्क तो यही कहता है कि समाजोपयोगी कार्य करने वाली ऐसी संस्थाओं को मदद दी जानी चाहिए। फिल्पस के अनुसार सरकारी मदद पाने के लिए गुरूकुल को संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी रखनी पड़ती, जो गुरूकुल को स्वीकार नहीं था। इसके साथ−साथ गुरूकुल को अपनी स्वयं की पुस्तकों के स्थान पर सरकारी पुस्तकें पढ़ानी पड़ती जो निश्चय ही गुरूकुल का सत्यानाश कर देतीं।

भारत में आदर्श शिक्षा पद्धति की खोज करने के इच्छुक व्यक्तियों से आग्रह है कि वो गुरूकुल कांगड़ी के इतिहास व उपलब्धियों का अध्ययन अवश्य करें।

4.8.06

परिचय − गुरूकुल कांगड़ी (भाग 1)

“कुछ बात ऐसी है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी”। एक हजार वर्षों की दासता के बावजूद भारत अपनी संस्कृति को बचा सका है। हमारे पूर्वजों के पुण्यों का प्रताप कुछ ऐसा है कि आज भी ऋषियों व मुनियों की कड़ी में अनवरत नई कड़ियां जुड़ रही हैं, जो हमारी संस्कृति को नया जीवन प्रदान करती हैं।

आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व ऐसे ही एक कर्मयोगी व ऋषि व्यक्तित्व महात्मा मुंशीराम (कालान्तर में स्वामी श्रद्धानन्द) ने हरिद्वार के निकट गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की थी। महात्मा मुंशीराम व उनके आर्य समाजी मित्रों की काफी समय से इच्छा थी कि तक्षशिला गुरूकुल के जैसा एक गुरूकुल शुरू हो, जो भारतीय संस्कृति की न केवल रक्षा करे अपितु नवीन शास्त्रों की रचना करके इस संस्कृति को नवपल्लवित भी कर सके। वैदिक धर्म को हर घर में पहुंचा सकने योग्य प्रचारकों का निर्माण हो व ऋषियों की इस भूमि के नागरिक उच्चतम आदर्शों को पुन: आचरण में लाने का उद्यम करें।

दुभार्ग्यवश धनाभाव व पर्याप्त साहस के अभाव के कारण यह कार्य कईं वर्षो तक टलता रहा, जब तक कि महात्मा मुंशीराम, जो पेशे से वकील थे, ने अपनी वकालत छोड़ कर धन एकत्रित करने का बीड़ा उठाया। अपना सर्वस्व उन्होंने गुरूकुल को समर्पित कर दिया व दर−दर जाकर पैसा इकठ्ठा करने लगे। उनके मित्रों ने ही उन्हें पागल व सनकी समझना शुरू कर दिया, पर मुंशीराम का निश्चय पक्का था।

अस्तु। मुठ्ठी भर छात्रों के साथ 1902 ईस्वी में गुरूकुल का शुभारम्भ हुआ। काम कठिन था। जिस समाज में योग्यता का मापदण्ड मात्र व्यक्ति के धन कमाने की क्षमता बन गया हो व सांसारिक सफलता ही एकमात्र ल्क्ष्य माना जाता हो, ऐसे समाज में हिन्दी माध्यम से पुरातन तरीकों द्वारा शिक्षा प्रदान करने का कार्य निश्चय ही जोखिम भरा था। लेकिन मुंशीराम जानते थे कि जितना महान लक्ष्य होगा, उतना ही अधिक जोखिम होगा और उतनी ही अधिक कीमत भी चुकानी होगी।

गुरूकुल की चर्या: गुरूकुल में सात वर्ष की आयु के बच्चों को 16 वर्षों के लिए प्रवेश मिलता था। छात्रों को इन सोलह वर्षों के लिए गरीबी, ब्रह्मचर्य व अनुशासन की प्रतिज्ञा करनी होती थी। वर्तमान समाज की दृष्टि से देखें तो एक अति कठोर नियम था − छात्र इन 16 वर्षों तक अपने घर नहीं जा सकते थे। उनके माता पिता ही उनसे मिलने के लिए माह में एक बार आ सकते थे। इस नियम के बावजूद उन्हें अच्छे छात्र भी मिले व देश विदेश में प्रशंसक भी मिले। अपनी स्थापना के 15 वर्ष के भीतर ही यह इतना प्रसिद्ध हो गया था कि गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उनके मन में भी इस गुरूकुल को देखने की तीव्र इच्छा थी।

छात्रों का दिन हर रोज प्रात: 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक चलता था। सुबह व सायं की पूजा, हवन व सुभाषितों का पाठ के अतिरिक्त साढ़े छ: घण्टे की कक्षा लगती थी। लगभग प्रतिदिन सुबह की प्रार्थना के बाद अवैतनिक कुलपति मुंशीराम से नैतिक शिक्षा विषयक परिचर्चा होती थी व सायं की प्रार्थना से पूर्व मैदान में खेल खेले जाते थे। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अगस्त सितम्बर की छुट्टियों के दौरान शिक्षकवर्ग छात्रों को अपने साथ भारत के विभिन्न भागों में शैक्षणिक यात्राएं कराने ले जाता था।

(भाग 2 में आगे − गुरूकुल में शिक्षा की पद्धति एवं शिक्षा का स्तर)

27.7.06

कारगिल में आक्रमण पाकिस्तानी सेना ने किया था?

मोहम्मद नासिर अख्तर कोई छोटी मोटी शिख्सयत नहीं है। पाकिस्तानी सेना के कईं उच्च पदों को नवाजा है और आजकल भारत में अपने भूतपूर्व वायुसेनाध्यक्ष के साथ पधारे हुए हैं।

रीडिफ में छपे एक साक्षात्कार में उनके मुंह से निकल ही गया कि कारगिल पर उन्होंने आक्रमण इसलिये किया था ताकि भारत को शान्ति वार्ता के लिए मजबूर कर सकें। मुंह से निकल तो गया पर अब इसे सही भी करना था तो आखिर में यह वाक्य भी जोड़ गए कि आक्रमण मुजाहिदों ने किया था। खैर, वो कारगिल को अपना सफल अभियान मानते हैं।

मुझे अच्छे से याद है कि भारतीय सेना (जिसे अख्तर साहब हिन्दू सेना कह रहे हैं) कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों के शव पाकिस्तानियों को सौंप रही थी और उन्होंने ये शव लेने से मना कर दिया था। उसके बाद भारत की ”हिन्दू” सेना ने ही इस मुस्लिम सेना के सैनिकों का इस्लामिक रीति से अन्तिम संस्कार किया था। परन्तु अब समझ में मुझे यह नहीं आ रहा है कि क्या कोई सेना युद्ध में मारे गए अपने ही सैनिकों के शव लेने से मना कर देगी? सिर्फ इसलिए कि आक्रमण का इल्जाम उनके ऊपर ना आ जाए।

21.7.06

हिन्दी के साथ भेदभाव जारी है।

अंग्रेज गए १९४७ में, लेकिन न तो गुलामी की मानसिकता गई और न ही अंग्रेजियत नहीं गई। न जाने क्यों आज भी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से अपने अधिकार मांगने पड़ते हैं। लीजिये पढ़िये कुछ समाचार जो सामान्य समझ से परे हैं।
१॰ बंगाल में हिन्दी माध्यम से पढ़ाई तो होती है लेकिन परीक्षा में प्रश्न पत्र अंग्रेजी में मिलते हैं। विवरण यहां पढ़ें।
२॰ एक ऐसे देश में जहां ९५ प्रतिशत जनसंख्या अंग्रेजी नहीं जानती, वहां अंग्रेजी भाषा की शिक्षा इस कदर अनिवार्य है कि अंग्रेजी में फेल यानि सब में फेल। हालांकि सब जानते हैं कि भारत में अंग्रेजी जन सामान्य की भाषा नहीं बन सकती। कुछ समाचार () () ()
३॰ क्या आप जानते हैं कि भारत में कम्पयूटर का प्रयोग कम होने के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे काबिल मन्त्री महोदय का मानना है कि माइक्रोसोफ्ट के उत्पादों की अधिक कीमतें इसके लिए जिम्मेदार हैं। वो ये तो स्वीकार करते हैं कि मात्र ५ प्रतिशत जनता ही अंग्रेजी जानती है, पर यह स्वीकार नहीं करते कि अंग्रेजी न जानने वाले लोग आज भी कम्पयूटरों का प्रयोग नहीं कर पाते। अगर कर लें तो समझ में आ जाएगा कि कम्पयूटरों का प्रयोग कम होने के लिए अंग्रेजियत की मानसिकता ही जिम्मेदार है जो भारत आज तक अपनी जनता को उनकी भाषा में कम्पयूटर उपलब्ध नहीं करवा पाया। पूरा विवरण यहां पढ़ें।
४॰ अंग्रेजी बोलने में समस्या है, पर बाकी सब कुछ आता है? तो क्या हुआ? स्कूल में दाखिला नहीं मिल सकता। पूरा विवरण यहां पढ़ें।
५॰ दवाओं की जानकारी स्थानीय भाषा में उपलब्ध नहीं। आज तक सिर्फ अंग्रेजी में ही लिखी यह जानकारी निकट भविष्य में शायद हिन्दी में भी उपलब्ध होने लगेगी। अन्य भाषाएं बोलने वाले लोग अब भी "पढ़े लिखों" पर निर्भर रहें। पूरा विवरण यहां पढ़ें।

मेरी तीर्थ यात्रा (जून 2001)

वाराणसी और इलाहाबाद में भयभीत हिन्दुओं के दर्शन का मौका मिला। ये हिन्दू सब से डर रहे थे – मन्दिरों के पास दुकानदारों से‚ रिक्शा वालों से‚ पुरोहितों व पण्डों से – सबसे। ऐसे में वो क्या भक्ति करेंगे‚ क्या धर्म पर चलेंगे और क्या मुक्ति पाएंगे? वैसे मुझे लगता है कि उनके लिए मुक्ति के लिए भगवान और भगवान के व्यापारियों की चापलूसी – बस यही रास्ता है।
मन्दिर में दर्शन जल्दी से हो जाएं – इसका प्रयास सभी कर रहे थे। काशी विश्वनाथ मन्दिर में पंक्ति में लगने के झंझट को छोड़ कर आगे निकल जाने की प्रवृत्ति दिखाई दी। कोलकता कालीघाट पर जैसे ही हमने मंदिर की गली में प्रवेश किया‚ जल्दी दर्शन करवाने वाले “ब्राह्मन” ने हमें पकड़ लिया।
इलाहाबाद के पातालपुरी मंदिर में द्वार पर एक व्यक्ति बैठा था जो हर दर्शनार्थी से एक–एक रूपया वसूल कर रहा था। वहां कहीं भी न तो “दर्शन की टिकट” सम्बन्धी कुछ लिखा था और न ही वह कोई रसीद दे रहा था। आश्चर्य की बात थी कि वही व्यक्ति धौंस दिखा रहा था जबकि हिन्दू भक्त उस से दबी जबान में बात कर रहे थे। मैं द्वार पर खड़ा उस व्यक्ति को घूरता रहा और सोचता रहा कि पुलिस को बुलाऊं या न बुलाऊं। यह भय भी था कि कहीं ये भाग ना जाए और यह भय भी था कि सब मिले हुए होंगे। खैर मुझे कोई पुलिस वाला दिखाई नहीं दिया। उस व्यक्ति को मुझ से भय हुआ या उस ने ऐसे ही कहा कि आप दर्शन कर लीजिए। मैंने कहा कि मैं एक पैसा भी नहीं दूंगा और उसने कहा कि कोई बात नहीं। उस ने कहा कि ये पैसा मन्दिर की देख रेख में ही खर्च होगा। जब मैंने कहा कि फिर ये पैसे दान पेटी में डालो तो उस ने तपाक से कहा कि वो सब पैसा तो पण्डित लोग खा जाएंगे। यह तो राम जाने कि अन्दर अन्दर क्या होता है पर बदबू तो असहनीय सी लगी।
ऐसे ही संगम पर विचित्र दृश्य देखा। जैसे ही हमारी नाव संगम पहुंची‚ हमारे नाविक ने कहा कि गंगा मैया को लात मारने (नहाने के लिए उतरने को उस ने लात मारना कहा) से पहले नारियल और फूल चढ़ाओ। उसने कहा कि दस रूपए का नारियल साथ वाली नाव से ले सकते हो। एक बारगी मुझे आश्चर्य हुआ कि संगम के बीच में आकर वो नारियल चढ़ाने को कहता है और नारियल की मात्र एक दुकान – तो भी सिर्फ दस रूपए का नारियल बिकता है। खैर मैंने कहा कि मैं तो ऐसे ही नहाऊंगा‚ मुझे नारियल नहीं चढ़ाना। इस पर नाव के सहयात्री और नाविक मुझ पर खूब बिगड़े – जैसे कि अगर मैं ऐसे ही नहा लिया तो घोर नरक में सड़ना पड़ेगा। कुछ उनकी श्रद्धा का असर और कुछ खुद को कंजूस समझने का भाव – मैंने नारियल खरीदने का निश्चय किया। नारियल बेचने वाले “पण्डित” ने नारियल हाथ में रखा और मन्त्र पढ़ने शुरू किए। कुछ मन्त्र मुझ से भी बुलवाए। 2–3 मिनट बाद उसने पूछा कि कितनी दक्षिणा दोगे‚ और मैंने तुरन्त जवाब दिया – “एक पैसा भी नहीं”। उसने मुझे दुत्कारा‚ उठ कर जाने को कहा‚ शेष मन्त्र नहीं पढ़े। मैंने वह नारियल संगम में बहाया और “पण्डित” के साथी तुरन्त ही वह नारियल तैर कर निकाल लाए और बिकाऊ नारियलों के साथ रख दिया। मुझे उन दुष्टों को दस रूपए देने का दु:ख हुआ। यह देख कर भी दु:ख हुआ कि पण्डित के सामने बैठे भक्त जन मुझे दुत्कारा जाता देख कर भी चुप रहे और उन्होंने उस पण्डित से “डरते–डरते” सब कर्म–काण्ड करवाए। मेरे सहयात्री‚ जो मुझे नारियल लेने को समझा रहे थे‚ आपस में बात कर रहे थे कि राजा भगीरथ तपस्या करके गंगा को कलकत्ता से लाए थे।
हर मन्दिर में भयभीत हिन्दू ही दिखाई दिए। मन्दिरों की दीवारों को छूते‚ मूर्ति को छूते‚ शिवलिंग से लिपटते‚ पण्डितों की एक हुंकार से रूकते और चलते‚ हमेशा यही निश्चय करने में लगे रहते कि किस मूर्ति पर नमस्कार कर दिया है और किस पर अभी करना है।
पातालपुरी के सामने फुटकर सिक्कों की दुकानें भी जमी हुई थी। एक रूपए के सिक्के के बदले में 9 दस्सियां बेच रहे थे। मन्दिर के सामने इस प्रकार का व्यापार इसलिए हो रहा था ताकि हिन्दू भक्त मानसिक रूप से सन्तुष्ट रहे कि उन्होंने 9 मूर्तियों को धन चढ़ाया‚ ना कि सिर्फ एक मूर्ति को। उन मूर्खों को यह हिसाब समझ में नहीं आता कि पहले वो मन्दिर को एक रूपया दान दे सकते थे‚ पर अब सिर्फ 90 पैसे ही दान कर रहे हैं।
एक और वृत्ति यह देखी कि लोग मूर्ति पर पैसा फैंक रहे हैं। यह प्रवृत्ति बचपन से देख रहा हूं। इसी प्रवृत्ति के कारण पुजारी लोग मन्दिर का पैसा आसानी से अपनी जेब में पहुंचा पाते हैं। काशी विश्वनाथ मन्दिर में किसी ने जल्दी दर्शन करवाने के लिए मुझ से धन नहीं मांगा। शायद भीड़ ना होने के कारण ऐसा हो‚ वर्ना मैंने तो सुना है कि वहां पैसा देकर जल्दी दर्शन किए जा सकते हैं। गन्दगी बहुत थी। टूटे हुए कसोरे का एक टुकड़ा मेरे पैर में चुभ भी गया था और मुझे खून बहने जैसा लगा था‚ पर खून आया नहीं था।
कुछ मन्दिरों में पैसा देने की इच्छा थी‚ पर नहीं दे पाया। एक तो माहौल ही व्यापार–बाजार जैसा था तो मन नहीं किया‚ दूसरे कहीं भी भक्ति भाव नहीं जगा। सर्वत्र भय व लूट का साम्राज्य था।
भारद्वाज मुनि के आश्रम में भी सब की नजरें इसी पर लगी थी कि मैं क्या चढ़ाता हूं। मुझे बुला–बुला कर औरतें ले गई और कहा कि माता अनुसुइया के सामने अवश्य कुछ चढ़ाओ‚ भारद्वाज मुनि के चरण अवश्य छुओ। पर मैंने उनकी एक न मानी। इससे उन्हें क्रोध आया और उन्होंने द्वार ऐसे बन्द किया जैसे फिर कभी पांव न धरने देंगी।
वाराणसी के कुछ मन्दिरों (दुर्गा मन्दिर और विश्वनाथ जी का मन्दिर) में लिखा था कि सिर्फ हिन्दू रिलीजन के लोग ही मन्दिर में जा सकते हैं। यह मुझे हल्कापन लगा। गम्भीरता से देखें तो हिन्दू की परिभाषा में वो लोग भी नहीं आएंगे जो वहां पुजारी बन कर बैठे हैं। और मात्र हिन्दू पूर्वजों की सन्तान होने से अगर कोई हिन्दू हो जाता है तो भी सबको मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिलना चाहिए। इस दृष्टि से इसाईयों की स्थिति बेहतर है जो चर्च में यह तख्ती नहीं लगाते कि मात्र इसाई ही चर्च में प्रवेश कर सकते हैं।
मुझे कहीं भी ‘शूद्रों का प्रवेश वर्जित है’ का अनुभव नहीं हुआ। यह प्रथा शायद अब उतनी नहीं है। कम से कम मुझे न तो ऐसा दिखाई दिया और न ही मुझ से किसी ने कुछ पूछा।
भक्ति के विचार से दक्षिणेश्वर ही ठीक रहा। शेष सब जगह अच्छा अनुभव नहीं रहा। वैसे संगम में नहाते हुए और मानस मन्दिर (वाराणसी) में भी अच्छे भाव मन में उठे थे।

20.7.06

भारत: मोक्ष का द्वार?

भारत भूमि को मोक्ष का द्वार व जगतगुरू कहा जाता रहा है। क्या हमारे पूर्वज उन राष्ट्रवादियों जैसे थे जो स्वप्रशंसा और दूसरों को दोयम समझने में विश्वास रखते हों ? ऐसा नहीं था। वें तो वसुधैव कुटुम्बकम् कहने वाले और ईश्वर को सर्वत्र मानने वाले थे। प्रश्न उठता है कि उन्होंने भारत ही को मोक्ष का द्वार क्यों कहा।
मोक्ष या मुक्ति के लिए व्यक्ति को माया का आवरण हटा कर सोहम् से साक्षात्कार होना चाहिए। उसके लिए क्रोध‚ दर्प‚ अज्ञान को छोड़ते हुए निर्भयता‚ सत्य‚ अहिंसा‚ तप‚ स्वाध्याय‚ दया‚ धैर्य‚ नम्रता जैसे दैवी गुणों को धारण करना चाहिए। भारतीय समाज में प्राचीन समय से ही इन दैवी गुणों के विकास के लिए उपयुक्त माहौल रहा करता था। इसी कारण से भारत को जगतगुरू व मोक्ष का द्वार भी कहा जाता था। सैकड़ों वर्षों की दासता के परिणामस्वरूप हम भारतीयों ने अपना आत्म–सम्मान ही नहीं खोया‚ आत्मविश्वास भी खो दिया है। पश्चिम की अन्धाधुन्ध नकल इसी का परिणाम है। पश्चिमी विचारधारा दुभार्ग्यवश भौतिकवाद को तो बढ़ावा देती है‚ परन्तु ऊपर वर्णित दैवी गुणों के विकास में तो वह बाधा ही है। ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबल के अनुसार भी धनवान का ईश्वर के राज्य में प्रवेश सूई के छेद से ऊंट के गुजरने से भी कठिन है।
क्या आप भारत को पुन: मोक्ष का द्वार व जगतगुरू बनाना चाहोगे? यदि हां तो उसके लिए बातें बनाने से और अपने गौरवमय अतीत की डींगें हांकने से कुछ नहीं होगा। उसके लिए निश्चय पूर्वक कुछ कर दिखाना होगा। क्या हम में अपने भारत को पहचान कर भारतीय तरीके से भारतीय समाज बनाने का साहस है?