21.9.08

दो राष्ट्र का सिद्धांत

चालीस के दशक की परिस्थितियाँ पुनः बन रही हैं। उस समय जिन्ना था, अब गिलानी वही बातें कर रहा है। हिंदू और मुसलमान दो विभिन्न राष्ट्र हैं और वो एक साथ मिल कर नहीं रह सकते - यही दो राष्ट्र का सिद्धांत है, जिस के आधार पर पाकिस्तान बना, लेकिन भारत ने इस सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया।

चालीस के दशक में सांप्रदायिक ताकतें अपने चरम पर थी। एक ओर मुस्लिम लीग भारत की अखंडता को तोड़ने के लिए हिंदू व मुस्लिम समुदायों का ध्रुवीकरण करने में लगी थी, वहीं हिंदूवादी संगठन देश की अखंडता बचाने के लिए मुस्लिम लीग की हिंसा में भागीदारी कर रहे थे। दोनों समुदाय धीरे-धीरे एक दूसरे का विश्वास खोते गए और अंततः पाकिस्तान बन ही गया। आज भी पाकिस्तान यह बात मानता है की हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते, जबकि भारत इसके उलट "हिंदू मुस्लिम सिख इसाई, आपस में सब भाई-भाई" का नारा बुलंद करता रहा है।

१९४७ के बाद भारत में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द फ़िर से स्थापित हुआ। शिक्षा पाठ्यक्रम, राजनैतिक नेता, धर्मगुरु और सामान्य जन - सभी स्तरों पर पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को बल मिला। कुछ साम्प्रदायिक दंगों की बात छोड़ दें तो अधिकाँश समय शांतिपूर्वक ही बीता।

लेकिन १९८० के दशक में जम्मू कश्मीर के चुनावों में कथित धांधली के बाद कश्मीर में अलगाववाद का दौर शुरू हो गया। जम्मू कश्मीर में धारा ३७० के कारण ऑटोनोमी शुरू से रही है। वहाँ मुख्यमंत्री सदा मुसलमान रहे हैं, कश्मीरी लोग भारत में प्रधान मंत्री, गृह मंत्री व सेना प्रमुख भी रहे हैं - लेकिन फ़िर भी अलगाववाद यह बोल कर शुरू हुआ की भारत ने कश्मीरियों के साथ भेद-भाव किया है। झूठ के पाँव नहीं होते, लेकिन एक झूठ बार-बार बोला गया तो लोगों ने उसे ही सच मानना शुरू कर दिया। अस्सी के दशक का अलगाव नब्बे के दशक में कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से निकालने में कामयाब हो गया। "दो राष्ट्र के सिद्धांत" को पाकिस्तान की शह पर फ़िर से बल मिल रहा था। लेकिन भारत ने हार नहीं मानी थी।

भारत ने अलगाववादियों की बन्दूक का सामना करने के लिए सेना भेजने का फ़ैसला किया। भारतीय सेना ने आम कश्मीरियों के जान माल की रक्षा करने के लिए अलगाववादियों को खदेड़ना शुरू किया। लेकिन इस्लाम के नाम पर इसका विरोध किया गया और इल्जाम लगाया गया की भारतीय सेना कश्मीरियों पर जुल्म कर रही है। अब तर्क १८० डिग्री घूम कर कुतर्क बन गया और यह कहा जाने लगा कि क्योंकि भारतीय सेना कश्मीर में है, इसीलिए कश्मीरी आतंकवादी बन रहे हैं। आज तो चालीस के दशक की ही तरह भारत में फ़िर से एक वर्ग ऐसा बन गया है, जो कश्मीरी अलगाववादियों के भारत से अलग होने के अधिकार को मान्यता दे रहा है।

"दो राष्ट्र का सिद्धांत" हमने न कभी स्वीकार किया है, न कभी करेंगे। बराबर के अधिकार और बराबर की आजादी के साथ सब मतों के लोग भारत में सदियों से मिलजुल कर रहते हैं। ये कश्मीरी अलगाववादी भी चाहें तो मिल कर रह सकते हैं, लेकिन इस्लाम का वास्ता देकर किसी प्रकार उनके दिमाग में बैठ गया है की हिंदू जनों के साथ वो नहीं रह सकते। जो लोग ये नहीं मानना नहीं चाहते की कश्मीर की लड़ाई इस्लाम को लेकर है तो वो कृपया गिलानी का भाषण सुन लें। गिलानी ने यह भाषण श्रीनगर में हजारों लोगों के सामने दिया था; मीरवायज उमर फारूक और यासीन मलिक भी वहीं थे, पर किसी ने प्रतिवाद नहीं किया! उस भाषण के बाद भी यदि किसी को संदेह बचे तो उसकी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है।

इस लेख के माध्यम से एक ही बात कहना चाहता हूँ की मर जाएंगे, मिट जाएंगे, पर इस बार देश का विभाजन नहीं होने देंगे। जो मिल जुल कर नहीं रह सकता, वो देश छोड़ कर जाने के लिए स्वतंत्र है। कश्मीर का सवाल सिर्फ़ जम्मू और कश्मीर राज्य या भारत-पाकिस्तान का सवाल नहीं है, बल्कि मानवीय मूल्यों का सवाल है। इस बार हम हारे तो बेहतर होगा की भारत के इतने टुकड़े हो जाएँ जितने भारत में पंथ हैं। कम से कम १०-१२ टुकड़े होने चाहियें, लेकिन वो दिन देखने से पहले मैं अपना बलिदान दे दूँगा।

12.8.08

शेख अजीज की मृत्यु के जिम्मेदार

आज से पहले मैंने शेख अजीज का नाम भी नहीं सुना था। कश्मीर के बड़े अलगाववादी नेताओं का जिक्र आता है तो यासीन मालिक, गिलानी और मीरवायज आदि का ही नाम सामने आता है। शेख अजीज के बारे में कश्मीर के बाहर के लोग कम ही जानते हैं। वो हुर्रियत के एक वरिष्ठ नेता थे और हुर्रियत Executive Council में शामिल थे। आज पुलिस की गोली से वो घायल हो गए और श्रीनगर के एक हस्पताल में उनका निधन हो गया।

शेख अजीज भारत माता के सपूत शायद न कहे जा सकते हों। वो मुख्यधारा से अलग एक राजनैतिक दल में थे और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार नहीं करते थे। अमरनाथ यात्रियों के लिए बेहतर इंतजाम करने के लिए जमीन देने से उनके अभिमान को ठेस लगी थी और उन्होंने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि अमरनाथ यात्रियों को पहले से ही कश्मीरियों का सहयोग मिलता रहा है और भविष्य में भी यात्रियों को इस सहयोग के अतिरिक्त कुछ देने की आवश्यकता नहीं है। अभी कुछ साल पहले ही बर्फ के तूफ़ान से सैकडों यात्री हताहत हुए थे, उसकी याद हम भारतीयों को ही नहीं है तो इन अलगाववादी नेताओं से क्या उम्मीद करें? शेख अजीज ने कभी अमरनाथ यात्रा तो की नहीं, इसलिए उनको यात्रियों के कष्ट का अंदाजा नहीं लग पाया और बेहतर सुविधाओं का विरोध कर बैठे।

खैर, शेख अजीज आज नहीं रहे। उनको पुलिस की गोली तब लगी जब वो अपने समर्थकों के साथ मुजफ्फराबाद जा रहे थे। ये वही मुजफ्फराबाद है, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की राजधानी है। मुझे लगता है कि मुजफ्फराबाद को भारत अपने क्षेत्र का हिस्सा मानता है, इसलिए शेख अजीज को भारत के ही किसी दूसरे हिस्से में जाने पर पुलिस को गोली चलाने की जरूरत नहीं थी। पर क्योंकि पाकिस्तान ने पिछले छ: दशक से मुजफ्फराबाद समेत हजारों वर्गमील जमीन पर कब्जा जमाया हुआ है, इसलिए शायद भारत सरकार को ऐसा लगा कि शेख अजीज वस्तुत: पाकिस्तान ही जा रहे हैं। ये भी हो सकता है की शेख अजीज कश्मीर के तथाकथित "आर्थिक बहिष्कार" के विरोध में मुजफ्फराबाद जा रहे थे, इसलिए सरकार उसे रोकना चाह रही हो। दो भाइयों के बीच मनमुटाव हो और एक भाई यदि दुश्मन के घर जाने लगेगा तो उसे कोई समझदार आदमी रोकेगा ही। भारत सरकार ने उन्हें समझाया, अपीलें की, यकीन दिलाया कि कोई "आर्थिक बहिष्कार" नहीं है, पर अपने मद में चूर हुर्रियत के नेताओं को लगा कि कश्मीरियों की भावनाओं को भड़काने और इसका राजनैतिक लाभ उठाने का इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा। वो मुजफ्फराबाद जाने की जिद में आगे बढे, पुलिस ने रोका पर जब हिंसा शुरू हो गयी तो पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा। शेख अजीज की दुखद मृत्यु इसी का परिणाम है।

मुझे मालूम है कि कश्मीर में जनता को तस्वीर का एक ही पहलू दिखाया जाएगा - "भारत की सेना और पुलिस की बर्बरता का एक और नमूना"। शेख अजीज अपने और हुर्रियत के दुराग्रह का शिकार हुए, ये सच बोलने की हिम्मत कश्मीर में किसी को नहीं है। एक जिम्मेदार और सत्यनिष्ठ व्यक्ति न तो अमरनाथ यात्रियों को अतिरिक्त सुविधाओं का विरोध करेगा और न ही घरेलू झगडों को लेकर दुश्मन से हाथ मिलाएगा, लेकिन हुर्रियत में न तो कोई जिम्मेदार नेता है और न ही सत्यनिष्ठ।

सच यही है कि अमरनाथ और आर्थिक बहिष्कार को लेकर किए गए इस झूठे प्रचार की जिम्मेदार बन्दूक संस्कृति है जिस वजह से घाटी में सच बोलने की हिम्मत कोई नहीं करता। शेख अजीज की मृत्यु का जिम्मेदार हुर्रियत का झूठा प्रचार और उनका दुराग्रह ही है।

3.4.08

हिन्दी में MBA, यानी बेहतर concepts?

भाई, आम तौर पर तो यही माना जाता है कि हिन्दी में MBA पढोगे तो देश विदेश में छपने वाले ज्ञान से वंचित भी रह जाओगे और नौकरी भी नहीं मिलेगी। लेकिन व्यवसायिक जगत शायद ऐसा नहीं मानता।

वर्धा के प्रसिद्ध विश्व विद्यालय ने जब हिन्दी भाषा में MBA शुरू की, तो पेंतालून के Managing Director किशोर बियानी जी ने कहा, "अपनी भाषा में शिक्षा पाना सदा ही अच्छा होता है। Concepts की समझ भी बेहतर बनती है। यदि पाठ्यक्रम अंग्रेजी में होने वाली MBA के बराबर का होगा तो ऐसे प्रत्याशियों के चयन में कोई समस्या नहीं आएगी"।

सामान्य जनों के लिए ये अनोखी बात हो सकती है। कुछ लोग इसे ऐसे लोगों की मूर्खता समझेंगे जो अपनी भाषा को आज भी पकड़ कर बैठे हैं और दुनिया की धारा से उलट चलने में अपनी ऊर्जा गँवा रहे हैं। कुछ लोग इस पर गर्व भी महसूस करेंगे। कुछ लोग इस घटना को भारतीय जनों की सिर्फ़ एक दबी हुई भावना की सुखद अभिव्यक्ति मानेंगे। किसी भी दृष्टि से इसको देखें, पर एक बात से कोई इनकार नही कर सकता कि ज्ञान और भाषा दो अलग अलग बातें हैं, और आज कल की अंधी दौड़ में ज्ञान और अंग्रेजी भाषा को एक ही बात मान लिया गया है। वर्धा विश्व विद्यालय का ये साहसिक कदम समाज में फैली हुई इस अवधारणा को दूर करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा कि उच्च शिक्षा सिर्फ़ अंग्रेजी में ही पायी जा सकती है।

वर्धा से पहले ही हैदराबाद के एक विश्व विद्यालय ने उर्दू माध्यम में MBA दी थी और उसके १००% छात्रों को नौकरी भी मिल गयी थी। ICICI के कार्पोरेट संचार समूह के मुखिया चारुदत्त देशपांडे जी का कहना है, "वित्त उद्योग में अंग्रेजी कि अनिवार्यता का कोई पवित्र नियम नहीं है। यहाँ पर सब अंकों (गणित) का काम है। यदि concepts स्पष्ट हैं तो नौकरियों में चयन में कोई समस्या नहीं होगी। वास्तव में front office कि नौकरियों के लिए तो स्थानीय भाषा में MBA पढने वाले लाभ की स्थिति में ही रहेंगे।"

पूरा समाचार यहाँ देखिये: http://www.dnaindia.com/report.asp?newsid=1156781&pageid=2



12.2.08

इकत्तीस की हो गयी आज! जन्मदिन मुबारक!!

आभा, तुम्हे जन्मदिन की बहुत बधाइयां। आज इकत्तीस वर्ष की हो गयी हो, जिस में से आठ साल तुम ने मुझे दिए हैं।

२८ अक्तूबर, १९९९ - कल की ही बात लगती है, जब हम पहली बार मिले थे। तब से लेकर अब तक ये ख्याल अनेकों बार मेरे मन में आया है कि काश! हम पहले मिलते तो मैं तुम्हारा बचपन भी देख पाता। जवानी का बचपना तो देख लिया, बचपन का बचपना रह गया। खैर ...

हमारे मिलने के एक सप्ताह बाद ही मुझे TCS में समय से पहले पदोन्नति मिल गयी। तुम मेरे लिए भाग्यशाली साबित हुयी। फिर शादी के बाद तुम्हारे साथ देश-विदेश देखने को मिला। तुमने मुझे घर दिया, और दो बहुत ही special बच्चे विष्णु व गरिमा दिए। विष्णु की देखभाल के लिए तुमने TCS की अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूर्णकालिक गृहस्थी में ध्यान लगा लिया। समय कि आवश्यकता के अनुसार तुमने जो निर्णय लिया, उस पर मुझे तुम पर गर्व है। बच्चों के आत्मनिर्भर बनने के बाद तुम अपना कैरीअर आगे बढाओ, यह हम दोनो की ही इच्छा है।

तुम्हारी सब से खास बात जो मुझे लगती है कि तुम मेरी धर्म पत्नी हो, मात्र पत्नी नहीं। धर्म के मार्ग पर चलाने वाली, धर्म की व्याख्या करने वाली और निर्भीक व स्पष्ट राय देने वाली आभा - तुमने मुझे सदा सही राह दिखाई है। अपनी कमजोरियों के वशीभूत मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी, जिनका मुझे असीम दुःख होता है। आर्मी कैंटीन का सामान बरतना और हिन्दी माध्यम इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने कि राह में शुरूआती असफलताओं से घबरा कर पलायन - इन दोनों गलतियों से मैं दिन रात कष्ट पाता हूँ क्योंकि इन घटनाओं ने मेरे आत्म विश्वास को भीतर से खोखला कर दिया है। लेकिन तुमने दोनों बार मुझे न केवल सही राह दिखाई थी, बल्कि सही राह चुनने का दबाव भी बनाया था।

शादी के बाद मैं तुम्हें जीवन के सुब सुख देना चाहता था। मुझे याद है मैंने तुम्हे एक कार्ड दिया था, जिसमे लिखा था - "I want a life for us which will be better than all our previous lives". हमने कोशिश भी की लेकिन सच्चाई का मार्ग छोड़ते ही हमारे सुख के दिन छिन गए। भोग बढ़ गया और भजन छूट गया। आज के इस महत्त्वपूर्ण दिन मैं तुम्हे यही उपहार देना चाहता हूँ कि मैं क्रोध, आलस्य और पर-उपहास - ये तीन दुर्गुण छोड़ रहा हूँ। आशा है कि तुम्हें यह उपहार अच्छा लगेगा।

आज के दिन स्वामी विवेकानन्द की लिखी इस कविता के माध्यम से तुम्हे शुभकामनाएं देता हूँ:

The mother's heart, the hero's will,
The softest flower's sweetest feel;
The charm and force that ever sway
The altar fire's flaming play;
The strength that leads, in love obeys;
Far-reaching dreams, and patient ways,
Eternal faith in Self, in all
The sight Divine in great in small;
All these, and more than I could see
Today may "Mother" grant to thee।