17.6.11

मेरी हरिद्वार यात्रा

रविवार (१२ जून) को जब मैंने पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार में प्रवेश किया तो मन में स्वामी रामदेव के स्वास्थ्य को लेकर चिंता तो थी, पर साथ ही यह कामना भी थी की रामदेव जी (एक संन्यासी) ने इस अनशन को "आमरण अनशन" कहा है तो इस अनशन को तब तक समाप्त नहीं करना चाहिए जब तक सब मांगे मान नहीं ली जाती. इन दो विरोधाभासी विचारों के बीच ही मन कह रहा था कि बाबा रामदेव आज अनशन तोड़ देंगे, जिसका भरोसा श्री श्री रविशंकर एक दिन पहले जता चुके थे.

मेरे लिए हरिद्वार जाना एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था. TCS में अपने काम को छोड़ कर निकलना मेरे बॉस राजेश ने कुछ आसान बना दिया, क्योंकि राजेश स्वयं एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं तथा दुनिया में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों के प्रति अपना वैयक्तिक मत रखते हैं. मैंने जब हरिद्वार जाने का फैसला किया तो मुझे नहीं मालूम था कि यह आन्दोलन कितना लम्बा चलेगा, परन्तु मेरा निश्चय था कि विजय मिलने से पहले लौटूंगा नहीं. मेरी पत्नी आभा मेरे लम्बे समय तक आन्दोलन से जुड़ने के पक्ष में नहीं थी और मेरे पिताजी तो एक दिन के लिए भी जुड़ना परिवार व TCS के प्रति गैरजिम्मेदारी व बेवकूफी भरा निर्णय बता रहे थे. खैर, मैं पतंजलि योगपीठ पहुँच चुका था और उम्मीद कर रहा था कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह आन्दोलन भारत के लिए एक एतिहासिक क्षण ला पायेगा.

योगपीठ में यज्ञशाला नामक स्थान पर आन्दोलनकारियों व मीडियाकर्मियों के बैठने की व्यवस्था की गयी थी. कुल ५०-६० लोग रहे होंगे, जो टीवी के माध्यम से आन्दोलन की खबरें पा रहे थे. मेरे ख्याल से आन्दोलन के नेताओं को आन्दोलनकारियों से सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए था. अनशन टूटने की खबर भी वहां टीवी के माध्यम से ही पहुंची, जो कि मेरी हरिद्वार यात्रा की पहली बड़ी निराशा थी. अनशन टूटना स्वयं एक बढ़ी निराशा थी ही.

खैर मुझे कुल मिला कर अपना हरिद्वार आना व्यर्थ लगा क्योंकि मैं समझ चुका था कि यह आन्दोलन अब कुछ समय के लिए तो अपनी ऊर्जा खो ही देगा. तभी मैंने अपने बॉस राजेश को इस आशय का सन्देश भेजा कि मेरी वापसी जल्द ही होगी. दोपहर के भोजन के बाद मैंने कईं कार्यकर्ताओं से बात कि और दो प्रश्न पूछे - (१) अनशन टूटने के बाद अब इस सत्याग्रह का अगला कदम क्या होगा?, (२) मैं आन्दोलन में योगदान देना चाहता हूँ, इसलिए मुझे स्वयंसेवकों के दल में शामिल होने के लिए क्या करना होगा? स्वयंसेवक के तौर पर मैंने सफाई से लेकर कंप्यूटर के किसी काम को करने के लिए अपनी तैयारी दिखाई. दोनों में से किसी भी प्रश्न का जवाब संतोषजनक नहीं मिला. मुझे आचार्य जी और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के लौटने तक इंतज़ार करने कि सलाह दी गयी और खाली बैठने को कहा. शाम को आखिरकार अपने प्रयास में मुझे थोड़ी सफलता मिली जब मुझे यज्ञशाला के निकट कुर्सियां तरतीब से लगाने का काम दिया गया.

किसी को मालूम नहीं था कि स्वामी जी कब लौटेंगे, पर सब इंतज़ार कर रहे थे. योगपीठ के अन्य सब काम तथा आयुर्वेदिक अस्पताल अपना नियमित काम कर ही रहे थे. सोमवार का सारा समय इस इंतज़ार में बीता कि शायद स्वामी जी आ ही जाएँ. स्टार न्यूज़ के एक व्यक्ति से बात करके पता चला कि स्वामी जी के अगले दिन सुबह ही आने कि संभावना है. स्वयंसेवा के लिए कोई मौका न देख कर मैंने पुस्तकालय में २ घंटे बिताये. योगपीठ का पुस्तकालय काफी समृद्ध है और विशेषतः हिंदी भाषा की पुस्तकों की अच्छी collection है. उन पुस्तकों को देख कर अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गौरव का एहसास हुआ तथा मन किया की वहां बैठ कर गंभीर अध्ययन करूं. लेकिन मैं जानता था कि अध्ययन का मौका अभी नहीं है.

शाम को मुझे योगपीठ के फेस २ में राजीव भवन जाकर विनोद जी से मिलने को कहा गया. विनोद जी शायद सूचना तकनीकी के लिए वहां कुछ setup कर रहे हैं और मेरी पृष्ठभूमि को देखते हुए शायद यह सोचा गया होगा कि मैं वहां कुछ स्वयंसेवा कर सकूंगा. मैं तुरंत राजीव भवन पहुंचा, जो कि भारत स्वाभिमान के श्री राजीव दीक्षित कि पावन स्मृति में बनाया गया है. ये वही राजीव दीक्षित हैं, जिनके भाषणों को सुनने के लिए १९९८-९९ में हम मुंबई में घूमते थे और जिनकी राष्ट्रनिष्ठा और देशभक्ति से प्रेरणा पाते थे. विनोद जी से जब मैं मिला तो मैंने पाया कि उनके पास मुझे देने को कोई काम नहीं है. शाम का समय था, इसलिए उन्होंने कहा कि अगले दिन सुबह वो मुझे कुछ बता सकेंगे. मैंने कहा कि मैं रात को भी जो काम बोलेंगे, वो करने को तैयार हूँ, पर विनोद जी ने कहा कि अभी वो एक आवश्यक बैठक के लिए निकल रहे हैं, इसलिए सुबह ही बता पायेंगे. मैंने उनसे एक प्रार्थना और की कि भारत स्वाभिमान "भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा" के मुद्दे पर जो कुछ काम कर रही है, मुझे उसकी जानकारी चाहिए. विनोद जी ने अगले दिन सुबह ९ बजे से पहले मुझे फोन पर बात करके दिशा दिखाने का भरोसा जताया और मेरा फोन नंबर ले लिया.

अगले दिन सुबह मुझे कोई फोन नहीं आया. पता लगा कि स्वामी जी हरिद्वार लौट आये हैं और ११:३० बजे के करीब दर्शन देंगे. मैं तुरंत यज्ञशाला पहुंचा कि शायद सत्याग्रह की भावी दिशा का पता लग सकेगा. वहां उस समय लगभग ४००-५०० लोग थे, तभी सूचना जारी हुई कि स्वामी जी अस्पताल के OPD हॉल में दर्शन देंगे. सुब लोग यज्ञशाला से निकल कर OPD हॉल में पहुंचे; मैं भी पहुंचा. इस पूरे समय में मैंने देखा कि यज्ञशाला के आसपास का जो तामझाम (टेंट, कुर्सियां, इत्यादि) था, उसे उठवाया जा रहा है. बाबा रामदेव कि प्रतीक्षा में हम बैठे थे, जब मंच से किसी ने घोषणा की कि सत्याग्रह जारी रहेगा और सब लोग अपने-अपने जिलों में लौट कर वहीँ से सत्याग्रह में भाग लें.

कोई १ घंटे की प्रतीक्षा के बाद स्वामी रामदेव पहुंचे. मैंने पहली बार उन्हें प्रत्यक्ष देखा था. शरीर से कमजोर, लेकिन चुस्त. चेहरे पर शांति व सौम्यता विराजमान थी. मंच पर पहुँच कर उन्होंने कुछ वरिष्ठ संतों के चरण छुए. कुछ अन्य संतों ने स्वामी जी के चरण छुए. स्वामी जी पर पुष्पवर्षा की गयी, और कार्यकर्ताओं ने "भारत माता की जय" और "वन्दे मातरम्" के नारों से माहौल गुंजा दिया. बिना कोई शब्द बोले स्वामी जी मंच से चले गए.

मुझे अभी भी सत्याग्रह की भावी दिशा का पता नहीं चला था. मैं वहां पहुंचा जहां से मीडिया के लोग रिपोर्ट कर रहे थे. कुछ लोगों में कैमरे के सामने खड़े होने की लालसा देखी, पर मैं दूर खड़ा हो कर सुनने की कोशिश कर रहा था कि क्या बताया जा रहा है. पता लगा कि सत्याग्रह को लेकर भ्रम की स्थिति है और ऐसी अफवाहें उड़ रही हैं कि स्वामी जी ने ८-१० दिन का मौन धारण किया है. मेरी इच्छा थी कि मैं मीडिया से पूछूं कि वो इस आन्दोलन के मुद्दों पर चर्चा करने की बजाय इस पर ध्यान क्यों लगा रहे हैं कि बाबा के पीछे कौन है, पर मैं अपने स्वयं के संकोच के कारण यह पूछ न पाया.

वहां से निपटने के बाद लगभग २ बजे मुझे एक ब्रह्मचारी मिले, जिन्होंने अपना जीवन बाबा की सेवा में समर्पित कर दिया है. उन्होंने बताया कि ऐसे लगभग १५० युवक-युवतियां हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए भारत स्वाभिमान का काम करने की कसम खाई है. उन ब्रह्मचारी को जब मैंने बताया कि मुझे कुछ दिनों से सत्याग्रह की कोई जानकारी नहीं मिल पा रही है, तो उन्होंने खेद प्रकट किया और कहा कि ऐसी व्यवस्था नहीं की जा सकी, जिस से मुझ जैसे लोगों को मार्गदर्शन दिया जा सके. "भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा" के विषय में उनका कहना था कि सरकार को ही इस दिशा में पहल करनी होगी (जिस के बारे में मेरा मत कुछ भिन्न है). उन्होंने अपने एक सहयोगी को कहा कि मुझे स्वामी मुक्तानंद से मिलवा दे. उनके सहयोगी थोडा घबराये, जिस से मैंने अंदाजा लगाया कि स्वामी मुक्तानंद जी शायद काफी वरिष्ठ हैं. मैं उनके साथ स्वामी मुक्तानंद कि खोज में निकला. थोड़ी देर में भगवे वस्त्रों में एक स्वामी मिले, जो सब कार्यकर्ताओं को योगपीठ के फेस २ में जाने को कह रहे थे. बाद में पता चला कि वही स्वामी मुक्तानंद थे. मैं फटाफट से खाना खाकर फेस-२ में पहुंचा, इस उम्मीद में कि सब से वहीँ पर मुलाकात होगी. परन्तु दुर्भाग्य से मुझे फेस-२ में कोई नहीं दिखाई दिया. मैं राजीव भवन में जाकर बैठ गया तो वहीँ विनोद जी मिल गए. मैंने शालीनतावश उनसे सुबह ९ बजे फोन न करने का तकाजा नहीं किया, पर यह जरूर कहा कि "भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा" के विषय पर स्पष्टता मिलने से पहले मैं वहां से नहीं लौटूंगा.

विनोद जी मुझे डॉ जयदीप आर्य के कार्यालय में ले गए. डॉ आर्य बाबा के बहुत नजदीकी सहयोगी हैं और मुझे विश्वास था कि वो मेरी सहायता अवश्य करेंगे. लेकिन उनके कार्यालय में एक अन्य सज्जन दिलीप जी बैठे थे, जो शायद कार्यालय को संभालने का काम करते हैं. वो स्वयं भी एक वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं. मैंने उनको अपनी सारी रामकहानी सुनायी, जो उन्होंने कुछ रूचि से व कुछ अरुचि से सुनी. उन्होंने भी यही कहा कि "भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा" के लिए सरकार को ही पहल करनी होगी. उसके बिना वो चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे. मैंने कहा कि जनता एवं भारत स्वाभिमान जैसे संगठन भी काफी कुछ कर सकते हैं, इसलिए सरकार के कुछ करने कि "प्रतीक्षा" करना शायद ठीक नहीं होगा, जैसे (१) अंग्रेजी को दिए जाने वाले स्पेशल treatment की खबरों को जनता तक ले जाना, (२) हिंदी में नए शब्द रचना, (३) हिंदी माध्यम में इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू करने की दिशा गंभीर पहल करना, ये कुछ काम तुरंत शुरू किये जा सकते हैं. दिलीप जी ने मुझे लिखित में एक प्रोपोसल देने का सुझाव दिया और कहा कि मैं इसे डॉ आर्य को सीधे भेज सकता हूँ. डॉ आर्य से मिलने के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि वो स्वामी जी के साथ हैं क्योंकि बहुत से लोग मिलने आये हुए हैं.

इस बैठक के बाद Action point मेरे पास था - मुझे लिखित में एक प्रोपोसल भेजना है, जिसके लिए मुझे कुछ समय लगेगा. मैंने हरिद्वार से लौट कर इस पर काम करने का निश्चय किया. इस पूरी यात्रा में कईं बातें सीखी -
(१) एक संगठन के नेतृत्व और उसके साधारण कार्यकर्ताओं के बीच में सीधा संवाद स्थापित होना बेहद जरूरी है.
(२) आन्दोलनों में कुछ योगदान देने के लिए अचानक सब छोड़ कर निकलने से पहले पत्र-व्यवहार व स्थानीय स्तर पर कुछ योगदान देना बहुत कामगार साबित होता है.
(c) अच्छे नेताओं को शांत, संयमित होना चाहिए और बडबोलेपन से बचना चाहिए.

19.4.11

झंझावत

दिमाग में काफी कुछ चल रहा है. जीवन को उपयोगी कैसे बनाया जाए? समय समय पर जीवन को दिशा देने की कोशिश की है - एक राह पकड़ कर चलने की, लेकिन हर बार कमजोर साबित हुआ हूँ. एक बार मन में आया भी कि शायद मैं कमजोर ही हूँ, और जीवन का सबसे अच्छा उपयोग यही है कि ईमानदारी से गृहस्थ पालन करता चलूँ. लेकिन उस से मन को थोड़े समय के लिए ही तसल्ली मिलती है.

इस जीवन में मेरी सबसे बड़ी पूँजी यही है कि मैं ईमानदारी से अपना समय बिता रहा हूँ. मैंने सब उतार चढाव में सत्य बोलना, और रिश्वत के बिना अपने काम ठीक तरीके से करना जारी रखा है. ट्रेन में TTE को और BSNL के लाइन मैन को पैसे नहीं देना, VIP कोटा से अपनी ट्रेन टिकेट को confirm नहीं करवाना - ऐसे कुछ काम तो अब आदत बन गए हैं.
फिर भी कुछ बातें उद्वेलित करती रहती हैं, जिन के लिए न तो कुछ करता हूँ और न ही करने की ख्वाहिश छोड़ पता हूँ:

1. बाबुओं और नेताओं द्वारा भ्रष्ट आचरण
2. अंग्रेजी को अन्य भाषाओं की तुलना में वरीयता
3. विनम्रता और निष्काम कर्म की कमी

जब से अनुपम जी ISKCON में व्यस्त हुए हैं, मेरे भीतर की भक्ति और समर्पण के भाव जाग रहे हैं. भक्तों का संग अच्छा लगता है और उनकी विनम्रता और प्रेम मुझे प्रेरणा दे रहा है. इसी प्रेरणा का परिणाम ये झंझावत है, जो मेरे दिल और दिमाग में चल रहा है.

उम्मीद करता हूँ की भक्तों का साथ मुझे दिशा भी दिखाएगा और एक राह पकड़ कर चलने का साहस भी देगा.