भारत भूमि को मोक्ष का द्वार व जगतगुरू कहा जाता रहा है। क्या हमारे पूर्वज उन राष्ट्रवादियों जैसे थे जो स्वप्रशंसा और दूसरों को दोयम समझने में विश्वास रखते हों ? ऐसा नहीं था। वें तो वसुधैव कुटुम्बकम् कहने वाले और ईश्वर को सर्वत्र मानने वाले थे। प्रश्न उठता है कि उन्होंने भारत ही को मोक्ष का द्वार क्यों कहा।
मोक्ष या मुक्ति के लिए व्यक्ति को माया का आवरण हटा कर सोहम् से साक्षात्कार होना चाहिए। उसके लिए क्रोध‚ दर्प‚ अज्ञान को छोड़ते हुए निर्भयता‚ सत्य‚ अहिंसा‚ तप‚ स्वाध्याय‚ दया‚ धैर्य‚ नम्रता जैसे दैवी गुणों को धारण करना चाहिए। भारतीय समाज में प्राचीन समय से ही इन दैवी गुणों के विकास के लिए उपयुक्त माहौल रहा करता था। इसी कारण से भारत को जगतगुरू व मोक्ष का द्वार भी कहा जाता था। सैकड़ों वर्षों की दासता के परिणामस्वरूप हम भारतीयों ने अपना आत्म–सम्मान ही नहीं खोया‚ आत्मविश्वास भी खो दिया है। पश्चिम की अन्धाधुन्ध नकल इसी का परिणाम है। पश्चिमी विचारधारा दुभार्ग्यवश भौतिकवाद को तो बढ़ावा देती है‚ परन्तु ऊपर वर्णित दैवी गुणों के विकास में तो वह बाधा ही है। ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबल के अनुसार भी धनवान का ईश्वर के राज्य में प्रवेश सूई के छेद से ऊंट के गुजरने से भी कठिन है।
क्या आप भारत को पुन: मोक्ष का द्वार व जगतगुरू बनाना चाहोगे? यदि हां तो उसके लिए बातें बनाने से और अपने गौरवमय अतीत की डींगें हांकने से कुछ नहीं होगा। उसके लिए निश्चय पूर्वक कुछ कर दिखाना होगा। क्या हम में अपने भारत को पहचान कर भारतीय तरीके से भारतीय समाज बनाने का साहस है?
20.7.06
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