21.7.06

मेरी तीर्थ यात्रा (जून 2001)

वाराणसी और इलाहाबाद में भयभीत हिन्दुओं के दर्शन का मौका मिला। ये हिन्दू सब से डर रहे थे – मन्दिरों के पास दुकानदारों से‚ रिक्शा वालों से‚ पुरोहितों व पण्डों से – सबसे। ऐसे में वो क्या भक्ति करेंगे‚ क्या धर्म पर चलेंगे और क्या मुक्ति पाएंगे? वैसे मुझे लगता है कि उनके लिए मुक्ति के लिए भगवान और भगवान के व्यापारियों की चापलूसी – बस यही रास्ता है।
मन्दिर में दर्शन जल्दी से हो जाएं – इसका प्रयास सभी कर रहे थे। काशी विश्वनाथ मन्दिर में पंक्ति में लगने के झंझट को छोड़ कर आगे निकल जाने की प्रवृत्ति दिखाई दी। कोलकता कालीघाट पर जैसे ही हमने मंदिर की गली में प्रवेश किया‚ जल्दी दर्शन करवाने वाले “ब्राह्मन” ने हमें पकड़ लिया।
इलाहाबाद के पातालपुरी मंदिर में द्वार पर एक व्यक्ति बैठा था जो हर दर्शनार्थी से एक–एक रूपया वसूल कर रहा था। वहां कहीं भी न तो “दर्शन की टिकट” सम्बन्धी कुछ लिखा था और न ही वह कोई रसीद दे रहा था। आश्चर्य की बात थी कि वही व्यक्ति धौंस दिखा रहा था जबकि हिन्दू भक्त उस से दबी जबान में बात कर रहे थे। मैं द्वार पर खड़ा उस व्यक्ति को घूरता रहा और सोचता रहा कि पुलिस को बुलाऊं या न बुलाऊं। यह भय भी था कि कहीं ये भाग ना जाए और यह भय भी था कि सब मिले हुए होंगे। खैर मुझे कोई पुलिस वाला दिखाई नहीं दिया। उस व्यक्ति को मुझ से भय हुआ या उस ने ऐसे ही कहा कि आप दर्शन कर लीजिए। मैंने कहा कि मैं एक पैसा भी नहीं दूंगा और उसने कहा कि कोई बात नहीं। उस ने कहा कि ये पैसा मन्दिर की देख रेख में ही खर्च होगा। जब मैंने कहा कि फिर ये पैसे दान पेटी में डालो तो उस ने तपाक से कहा कि वो सब पैसा तो पण्डित लोग खा जाएंगे। यह तो राम जाने कि अन्दर अन्दर क्या होता है पर बदबू तो असहनीय सी लगी।
ऐसे ही संगम पर विचित्र दृश्य देखा। जैसे ही हमारी नाव संगम पहुंची‚ हमारे नाविक ने कहा कि गंगा मैया को लात मारने (नहाने के लिए उतरने को उस ने लात मारना कहा) से पहले नारियल और फूल चढ़ाओ। उसने कहा कि दस रूपए का नारियल साथ वाली नाव से ले सकते हो। एक बारगी मुझे आश्चर्य हुआ कि संगम के बीच में आकर वो नारियल चढ़ाने को कहता है और नारियल की मात्र एक दुकान – तो भी सिर्फ दस रूपए का नारियल बिकता है। खैर मैंने कहा कि मैं तो ऐसे ही नहाऊंगा‚ मुझे नारियल नहीं चढ़ाना। इस पर नाव के सहयात्री और नाविक मुझ पर खूब बिगड़े – जैसे कि अगर मैं ऐसे ही नहा लिया तो घोर नरक में सड़ना पड़ेगा। कुछ उनकी श्रद्धा का असर और कुछ खुद को कंजूस समझने का भाव – मैंने नारियल खरीदने का निश्चय किया। नारियल बेचने वाले “पण्डित” ने नारियल हाथ में रखा और मन्त्र पढ़ने शुरू किए। कुछ मन्त्र मुझ से भी बुलवाए। 2–3 मिनट बाद उसने पूछा कि कितनी दक्षिणा दोगे‚ और मैंने तुरन्त जवाब दिया – “एक पैसा भी नहीं”। उसने मुझे दुत्कारा‚ उठ कर जाने को कहा‚ शेष मन्त्र नहीं पढ़े। मैंने वह नारियल संगम में बहाया और “पण्डित” के साथी तुरन्त ही वह नारियल तैर कर निकाल लाए और बिकाऊ नारियलों के साथ रख दिया। मुझे उन दुष्टों को दस रूपए देने का दु:ख हुआ। यह देख कर भी दु:ख हुआ कि पण्डित के सामने बैठे भक्त जन मुझे दुत्कारा जाता देख कर भी चुप रहे और उन्होंने उस पण्डित से “डरते–डरते” सब कर्म–काण्ड करवाए। मेरे सहयात्री‚ जो मुझे नारियल लेने को समझा रहे थे‚ आपस में बात कर रहे थे कि राजा भगीरथ तपस्या करके गंगा को कलकत्ता से लाए थे।
हर मन्दिर में भयभीत हिन्दू ही दिखाई दिए। मन्दिरों की दीवारों को छूते‚ मूर्ति को छूते‚ शिवलिंग से लिपटते‚ पण्डितों की एक हुंकार से रूकते और चलते‚ हमेशा यही निश्चय करने में लगे रहते कि किस मूर्ति पर नमस्कार कर दिया है और किस पर अभी करना है।
पातालपुरी के सामने फुटकर सिक्कों की दुकानें भी जमी हुई थी। एक रूपए के सिक्के के बदले में 9 दस्सियां बेच रहे थे। मन्दिर के सामने इस प्रकार का व्यापार इसलिए हो रहा था ताकि हिन्दू भक्त मानसिक रूप से सन्तुष्ट रहे कि उन्होंने 9 मूर्तियों को धन चढ़ाया‚ ना कि सिर्फ एक मूर्ति को। उन मूर्खों को यह हिसाब समझ में नहीं आता कि पहले वो मन्दिर को एक रूपया दान दे सकते थे‚ पर अब सिर्फ 90 पैसे ही दान कर रहे हैं।
एक और वृत्ति यह देखी कि लोग मूर्ति पर पैसा फैंक रहे हैं। यह प्रवृत्ति बचपन से देख रहा हूं। इसी प्रवृत्ति के कारण पुजारी लोग मन्दिर का पैसा आसानी से अपनी जेब में पहुंचा पाते हैं। काशी विश्वनाथ मन्दिर में किसी ने जल्दी दर्शन करवाने के लिए मुझ से धन नहीं मांगा। शायद भीड़ ना होने के कारण ऐसा हो‚ वर्ना मैंने तो सुना है कि वहां पैसा देकर जल्दी दर्शन किए जा सकते हैं। गन्दगी बहुत थी। टूटे हुए कसोरे का एक टुकड़ा मेरे पैर में चुभ भी गया था और मुझे खून बहने जैसा लगा था‚ पर खून आया नहीं था।
कुछ मन्दिरों में पैसा देने की इच्छा थी‚ पर नहीं दे पाया। एक तो माहौल ही व्यापार–बाजार जैसा था तो मन नहीं किया‚ दूसरे कहीं भी भक्ति भाव नहीं जगा। सर्वत्र भय व लूट का साम्राज्य था।
भारद्वाज मुनि के आश्रम में भी सब की नजरें इसी पर लगी थी कि मैं क्या चढ़ाता हूं। मुझे बुला–बुला कर औरतें ले गई और कहा कि माता अनुसुइया के सामने अवश्य कुछ चढ़ाओ‚ भारद्वाज मुनि के चरण अवश्य छुओ। पर मैंने उनकी एक न मानी। इससे उन्हें क्रोध आया और उन्होंने द्वार ऐसे बन्द किया जैसे फिर कभी पांव न धरने देंगी।
वाराणसी के कुछ मन्दिरों (दुर्गा मन्दिर और विश्वनाथ जी का मन्दिर) में लिखा था कि सिर्फ हिन्दू रिलीजन के लोग ही मन्दिर में जा सकते हैं। यह मुझे हल्कापन लगा। गम्भीरता से देखें तो हिन्दू की परिभाषा में वो लोग भी नहीं आएंगे जो वहां पुजारी बन कर बैठे हैं। और मात्र हिन्दू पूर्वजों की सन्तान होने से अगर कोई हिन्दू हो जाता है तो भी सबको मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिलना चाहिए। इस दृष्टि से इसाईयों की स्थिति बेहतर है जो चर्च में यह तख्ती नहीं लगाते कि मात्र इसाई ही चर्च में प्रवेश कर सकते हैं।
मुझे कहीं भी ‘शूद्रों का प्रवेश वर्जित है’ का अनुभव नहीं हुआ। यह प्रथा शायद अब उतनी नहीं है। कम से कम मुझे न तो ऐसा दिखाई दिया और न ही मुझ से किसी ने कुछ पूछा।
भक्ति के विचार से दक्षिणेश्वर ही ठीक रहा। शेष सब जगह अच्छा अनुभव नहीं रहा। वैसे संगम में नहाते हुए और मानस मन्दिर (वाराणसी) में भी अच्छे भाव मन में उठे थे।

1 टिप्पणी:

रवि रतलामी ने कहा…

...हर मन्दिर में भयभीत हिन्दू ही दिखाई दिए। मन्दिरों की दीवारों को छूते‚ मूर्ति को छूते‚ शिवलिंग से लिपटते‚ पण्डितों की एक हुंकार से रूकते और चलते‚ हमेशा यही निश्चय करने में लगे रहते कि किस मूर्ति पर नमस्कार कर दिया है और किस पर अभी करना है।...

आपने एकदम सत्य लिखा है. धर्म भीरु व्यक्ति निरा बेवकूफ होता है और धार्मिक कर्मकाण्ड करवाने वाले हमारी बेवकूफ़ी से अपना धंधा चलाते हैं.