आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व ऐसे ही एक कर्मयोगी व ऋषि व्यक्तित्व महात्मा मुंशीराम (कालान्तर में स्वामी श्रद्धानन्द) ने हरिद्वार के निकट गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की थी। महात्मा मुंशीराम व उनके आर्य समाजी मित्रों की काफी समय से इच्छा थी कि तक्षशिला गुरूकुल के जैसा एक गुरूकुल शुरू हो, जो भारतीय संस्कृति की न केवल रक्षा करे अपितु नवीन शास्त्रों की रचना करके इस संस्कृति को नवपल्लवित भी कर सके। वैदिक धर्म को हर घर में पहुंचा सकने योग्य प्रचारकों का निर्माण हो व ऋषियों की इस भूमि के नागरिक उच्चतम आदर्शों को पुन: आचरण में लाने का उद्यम करें।
दुभार्ग्यवश धनाभाव व पर्याप्त साहस के अभाव के कारण यह कार्य कईं वर्षो तक टलता रहा, जब तक कि महात्मा मुंशीराम, जो पेशे से वकील थे, ने अपनी वकालत छोड़ कर धन एकत्रित करने का बीड़ा उठाया। अपना सर्वस्व उन्होंने गुरूकुल को समर्पित कर दिया व दर−दर जाकर पैसा इकठ्ठा करने लगे। उनके मित्रों ने ही उन्हें पागल व सनकी समझना शुरू कर दिया, पर मुंशीराम का निश्चय पक्का था।
अस्तु। मुठ्ठी भर छात्रों के साथ 1902 ईस्वी में गुरूकुल का शुभारम्भ हुआ। काम कठिन था। जिस समाज में योग्यता का मापदण्ड मात्र व्यक्ति के धन कमाने की क्षमता बन गया हो व सांसारिक सफलता ही एकमात्र ल्क्ष्य माना जाता हो, ऐसे समाज में हिन्दी माध्यम से पुरातन तरीकों द्वारा शिक्षा प्रदान करने का कार्य निश्चय ही जोखिम भरा था। लेकिन मुंशीराम जानते थे कि जितना महान लक्ष्य होगा, उतना ही अधिक जोखिम होगा और उतनी ही अधिक कीमत भी चुकानी होगी।
गुरूकुल की चर्या: गुरूकुल में सात वर्ष की आयु के बच्चों को 16 वर्षों के लिए प्रवेश मिलता था। छात्रों को इन सोलह वर्षों के लिए गरीबी, ब्रह्मचर्य व अनुशासन की प्रतिज्ञा करनी होती थी। वर्तमान समाज की दृष्टि से देखें तो एक अति कठोर नियम था − छात्र इन 16 वर्षों तक अपने घर नहीं जा सकते थे। उनके माता पिता ही उनसे मिलने के लिए माह में एक बार आ सकते थे। इस नियम के बावजूद उन्हें अच्छे छात्र भी मिले व देश विदेश में प्रशंसक भी मिले। अपनी स्थापना के 15 वर्ष के भीतर ही यह इतना प्रसिद्ध हो गया था कि गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उनके मन में भी इस गुरूकुल को देखने की तीव्र इच्छा थी।
छात्रों का दिन हर रोज प्रात: 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक चलता था। सुबह व सायं की पूजा, हवन व सुभाषितों का पाठ के अतिरिक्त साढ़े छ: घण्टे की कक्षा लगती थी। लगभग प्रतिदिन सुबह की प्रार्थना के बाद अवैतनिक कुलपति मुंशीराम से नैतिक शिक्षा विषयक परिचर्चा होती थी व सायं की प्रार्थना से पूर्व मैदान में खेल खेले जाते थे। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अगस्त सितम्बर की छुट्टियों के दौरान शिक्षकवर्ग छात्रों को अपने साथ भारत के विभिन्न भागों में शैक्षणिक यात्राएं कराने ले जाता था।
(भाग 2 में आगे − गुरूकुल में शिक्षा की पद्धति एवं शिक्षा का स्तर)
1 टिप्पणी:
अच्छी जानकारी दी है आपने। आशा है अगले भाग में और विस्तृत जानकारी मिलेगी।
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