14.9.06

संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) का सिद्धान्त

आजादी के 60 वर्ष पूरे होते−होते देश में भुखमरी के दर्शन होने लगे हैं। अनेक सर्वेक्षण किए गए हैं और लगभग सभी इसी बात की ओर इंगित करते हैं कि भारत में आजादी के बाद व विशेष तौर पर उदारीकरण के बाद अमीरों व गरीबों के बीच खाई बढ़ी है। करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर भुखमरी व गरीबी जनित आत्महत्याएं भी बढ़ी हैं। इन समस्याओं को लेकर जहां राजनेता वोटों की राजनीति में लगे हैं, तो दूसरी ओर नक्सलवाद सिर उठा रहा है। पड़ौसी देश नेपाल में तो माओवाद के नाम पर एक बड़ी शक्ति का उदय होता भी दिखाई दे रहा है।

भूख एवं गरीबी के कारण किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को टी•वी• पर हमारे कृषि मन्त्री चाहे सामान्य घटना बता दें, परन्तु वास्तविकता यह है कि शस्य श्यामला हमारी भारत माता में अपनी सन्तानों का पालन करने का सामर्थ्य आज भी बरकरार है। समस्या इतनी ही है कि भारत माता हमें जो कुछ भी देती है, उसे कुछ प्रभावी लोग हड़प लेते हैं और गरीब लोगों को कुछ नहीं मिल पाता।

आम तौर पर कठिन दिखने वाली समस्याओं का हल बहुत आसान होता है। इस समस्या का हल भी कुछ विशेष कठिन नहीं है। जिस किसी को भी विरासत में या उद्योग −व्यवसाय द्वारा प्रचुर सम्पत्ति मिल जाए, वह उस सम्पत्ति में से अपने गुजारे भर का लेकर शेष पर राष्ट्र का हक समझे। ऐसा करने से जहां व्यक्ति गैर−जरूरी लालच से अपनी रक्षा कर सकेगा, वहीं समाज में सम्पन्नता व भाईचारा बढ़ेगा। नक्सलवाद जैसे प्रतिक्रियावादी आन्दोलनों की आवश्यकता नहीं रह जाएगी एवं सब लोग सामूहिक विकास कर सकेंगे। ‘त्यागपूर्वक भोग भोगना’ ही संरक्षता का सिद्धान्त है।

ईशावास्योपनिषद में भी गाया गया है :
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद् धनम्।।
अथार्त् इस जगत में सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है, इसलिए त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो। धन आदि भोग्य पदार्थ किसी के भी नहीं हैं।

आजकल तो हर एक व्यक्ति पड़ौसी की चिन्ता किए बिना अपने लिए ही जीता है। सर्वकल्याणकारी नवीन जीवन पद्धति का विकास करना हो तो उसका सबसे निश्चित मार्ग संरक्षता का सिद्धान्त ही है। साम्यवाद अथवा नक्सलवाद द्वारा पोषित ऐसी जड़ समानता को भारतीय चित्त स्वीकार नहीं कर सकता जिसमें कोई अपनी योग्यताओं का पूरा उपयोग ही न कर सके। भारत में तो हर एक को करोड़ों रूपए कमाने की स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए, लेकिन इस सारे धन का उद्देश्य सर्व कल्याण में समर्पित कर देने का ही होना चाहिए।

अब प्रश्न यह है कि इस तरह के सच्चे संरक्षक (ट्रस्टी) कितने हो सकते हैं। बहुतेरे लोग इस सिद्धान्त को अव्यावहारिक मान लेते हैं। वें देख नहीं पाते कि आज भी ऐसे उदाहरणों से हमारा समाज भरा पड़ा है जो सच्चे अर्थों में ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का पालन कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी कि अगर सिद्धान्त ठीक हो तो हमें यह देखने की बजाय कि इसका पालन कितने लोग कर रहे हैं, हमें यह देखना चाहिए कि किस प्रकार इस सिद्धान्त को हम अपने जीवन में अपना सकते हैं। संख्या बल से ही हम किसी सिद्धान्त के सही या गलत होने का निर्णय नहीं कर सकते।

लोग स्वेच्छा से संरक्षक बनें तो यह बहुत अच्छा होगा। अगर वो न बनें तो मेरा खयाल है कि उन्हें संरक्षक बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए या फिर अहिंसक तरीकों द्वारा धनियों को या तो उनकी सम्पत्ति से वंचित करना चाहिए।

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