24.11.06

यही लैंग्वेज है नए भारत की

बाल मुकुन्द जी का लिखा यह लेख 13 नवम्बर 2006 के नवभारत टाइम्स में छपा था। मूल लेख यहां देखें।

हमारे सामने राजधानी से प्रकाशित होने वाले हिंदी के सभी प्रमुख अखबार रखे हैं। दैनिक हिंदुस्तान के पहले पन्ने पर एक शीर्षक है 'वीवीआईपी नातियों की सुरक्षा कड़ी।' दूसरा शीर्षक है 'पीएम सुरक्षा में गड़बड़ी पर दो की छुट्टी।' भीतर के पन्ने पर एक शीर्षक है 'थीम वेडिंग के बढ़ते चलन से एंटरटेनमेंट कंपनियों की चांदी।' वीवीआईपी के बदले अति महत्वपूर्ण, पीएम की जगह प्रमं, वेडिंग की जगह शादी और एंटरटेनमेंट की जगह मनोरंजन लिखा जा सकता था, लेकिन नहीं लिखा गया, क्योंकि ये सभी विकल्प आसान हैं, प्रचलित हैं और शीर्षक में पॉइंट वगैरह के हिसाब से फिट बैठते हैं।

अंग्रेजी शब्दों या एब्रिविएशन का यह इस्तेमाल सिर्फ इसी अखबार में नहीं हुआ है। जागरण ने लिखा है 'सीरियल किलर्स से गांव ने नाता तोड़ा' और 'आतंकी हमले की आशंका से हाई अलर्ट।' जनसत्ता का शीर्षक है 'छुट्टी के कारण सीलिंग नहीं हुई।' अखबार अब डब्ल्यूटीओ, एसईजेड, थर्ड राउंड, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और केमिकल मार्केट जैसे जुमलों का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।

आज से पांच साल पहले नवभारत टाइम्स ने जब अपने शीर्षकों और खबरों में अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन को ज्यों का त्यों रख देने का प्रयोग शुरू किया था, तब इस पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि हम हिंदी का सत्यानाश कर रहे हैं। कुछ ने कहा कि जिन शब्दों के लिए हिंदी में विकल्प हैं या बनाए जा सकते हैं, उन्हें जबरन ठूंसने की कोशिश गलत है। स्टेशन और रेल जैसे जो शब्द हिंदी में रच-बस चुके हैं, उन्हीं के प्रयोग तक सीमित रहना चाहिए। पांच दशक पहले डॉ. रघुवंश जैसे विद्वान 'रेल' और 'स्टेशन' जैसे शब्दों के लिए भी तैयार नहीं थे। कुछ लोगों ने 'लौह पथगामिनी' और 'धूम्र शकट विरामालय' जैसे विकल्प भी बनाए थे। खैर, वे चले नहीं। विद्वान लोग अभी हिंदी में रेल और स्टेशन को पचा हुआ घोषित करना ही चाहते थे कि लोकल, ब्लू लाइन और मेट्रो जैसी चीजें धड़धड़ाती हुई घुस गईं।

बहरहाल हमने उन आलोचनाओं का कोई जवाब नहीं दिया और न ही अपनी राह बदली। खबरों को अपने पाठकों तक पहुंचाने के लिए जैसी भाषा हमें कारगर लगी, हम उसका प्रयोग करते रहे। इस पांच साल के दौरान ज्यादातर अखबार उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं। अब अंग्रेजी शब्दों और एब्रिविएशन का वैसा विरोध नहीं हो रहा है, जैसा उस समय हो रहा था। सीपीआई और सीपीएम को भाकपा और माकपा या हाई कोर्ट को उच्च न्यायालय लिखने जैसा आग्रह अब कोई नहीं करता।

नवभारत टाइम्स की तर्ज पर राजधानी के दूसरे हिंदी अखबारों में जो बदलाव आया है उसके लिए यह सोचना शेखचिल्लीपना होगा कि हमारा अखबार इतना ताकतवर और प्रभावशाली है कि इसने इन पांच वर्षों में हिंदी भाषा की पूरी तस्वीर बदल दी और इसी वजह से दूसरे अखबारों को नवभारत टाइम्स का अनुगामी बनना पड़ा। हमें ऐसा कोई भ्रम नहीं है। किसी भाषा को बनाने-संवारने का काम पूरा समाज करता है और उसकी शक्ल बदलने में कई-कई पीढि़यां लग जाती हैं। लेकिन इस बात का श्रेय नवभारत टाइम्स को जरूर मिलना चाहिए कि उसने उस बदलाव को सबसे पहले देखा और पहचाना, जो पाठकों की दुनिया में आ रहा है। दूसरे अखबारों को उस बदलाव के दबाव की वजह से नवभारत टाइम्स के रास्ते पर चलना पड़ा, यह उनके लिए चॉइस की बात नहीं थी।

अंग्रेजी आज की जरूरत है। यही वह खिड़की या दरवाजा है, जिसके द्वारा हम बाहर की दुनिया देख सकते हैं या बाहर की रोशनी भीतर ला सकते हैं। संभव है कि किसी ऊंची डिग्री के बावजूद आज नौकरी नहीं मिले, लेकिन सिर्फ अंग्रेजी की बदौलत नौकरी मिल सकती है। कारण जो भी हों, अंग्रेजी पूरी दुनिया के लिए एक तरह से लिंक लैंग्वेज का काम कर रही है। हमें और हमारे बच्चों को इसकी पढ़ाई करनी ही होगी- चाहे इसे फिजिक्स, केमिस्ट्री की तरह पढ़ें या हिंदी-उर्दू-संस्कृत की तरह।

आज का परिदृश्य देखें। देश में बेरोजगारी ९.२ प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि प्रफेशनल लोगों की बेहद कमी है। हमारे पास पर्याप्त डॉक्टर, इंजीनियर और आईटी प्रफेशनल नहीं हैं। अमेरिका प्रति वर्ष दस लाख की आबादी पर लगभग साढ़े सात सौ आईटी प्रफेशनल तैयार करता है और चीन पांच सौ, लेकिन भारत सिर्फ दो सौ। क्या बिना अंग्रेजी के यह पढ़ाई की जा सकती है? भविष्य में अंग्रेजी के बिना साहित्य सृजन, पठन-पाठन, खेती-किसानी और मजदूरी हो सकेगी, लेकिन इन क्षेत्रों में प्रतिष्ठा नहीं होगी। इनमें रोजगार की तेज वृद्धि की उम्मीद भी नहीं दिखती। जिन क्षेत्रों में नौकरी, धन और प्रतिष्ठा होगी वे एविएशन, बैंकिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईटी, फार्मा और रिटेलिंग जैसे क्षेत्र होंगे, जहां अंग्रेजी की जरूरत होगी। विदेश जाने और देश में भी ऊंची पढ़ाई के लिए अंग्रेजी की ही जरूरत होगी। इसलिए यदि अपने युवाओं को ग्लोबल बनाना है, तो बेहतर है हम उन्हें शुरू से ही अंग्रेजी पढ़ाएं।

आज जब हमारा देश दुनिया के सबसे जवान देशों में से एक है, यहां जवान लोगों के लिए रोजगार नहीं है। इस देश की तीन चौथाई आबादी की उम्र ४० साल से कम है। लेकिन जनगणना रिपोर्ट यह भी बताती है कि १९९१ में यहां १३.८ करोड़ बेरोजगार थे, जो २००१ तक आते-आते ४४.५ करोड़ हो गए। आज देश में बेरोजगारी की दर १०.१ प्रतिशत है, लेकिन ग्रैजुएट बेरोजगारी की दर १७.२ प्रतिशत है। यहां ४० प्रतिशत ग्रैजुएट और ३२ प्रतिशत टेक्निकल ग्रैजुएट बेकार बैठे हैं। इन बेरोजगार ग्रैजुएट्स के जो सहपाठी आज नौकरियों में बैठे हैं, उसका एक बड़ा कारण अंग्रेजी ही है।

दिक्कत यह है कि अंग्रेजी का जिक्र आते ही हम दोहरे मानदंड का शिकार हो जाते हैं। हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डालना चाहता है, लेकिन सामाजिक तौर पर अंग्रेजी के महत्व का विरोध करता है। बातचीत में ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलता है, लेकिन हिंदी के अखबार में अंग्रेजी के शब्द देख कर नाराज हो जाता है। उसकी खुद की जिंदगी में पैंट, शर्ट, टाई, हलो, हाय शामिल हो जाए तो अच्छा है, लेकिन अखबार की भाषा नहीं बदले। घर से बाहर निकलते समय अंग्रेजी की पत्रिका कांख में दबा लेता है, लेकिन दूसरों को भाषा की सेवा करते रहने का उपदेश देता है। इस दोहरेपन से हम जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना अच्छा होगा।

3 टिप्‍पणियां:

bhuvnesh sharma ने कहा…

मुकेशजी आप जिस दोहरेपन की बात कर रहे हैं वही तो हमारे देश की पहचान है यही छोड़ देंगे तो पहचान कैसे कायम रहेगी

बेनामी ने कहा…

हिन्दी में न प्रतिष्ठा है न पैसा. पता नहीं ये हिन्दी अखबार क्यों चला रहे हैं?

बेनामी ने कहा…

भुवनेश जी आपसे बहुत बड़ी भूल हुई है यह शब्द मुकेश जी के लिखे नहीं है बल्कि उन्होने नवभारत में छपे लिखे लेख को यहाँ प्रकाशित किया है। बाकी मुकेश भाई अपनी बच्ची को हिन्दी माध्यम से शिक्षा दिलवाने के लिये कितने परेशान हुए यह आप जानना चाहेते हों तो इस पर क्लिक कीजिये
http://mukeshbansal.blogspot.com/search/label/हिन्दी%20का%20दर्द