[राजीव जी अग्रवाल हमारे करीबी दोस्त तब बने जब हम इपस्विच में एक हिंदू मन्दिर की आवश्यकता के बारे में बात करते थे। फ़िर वो भारत चले गए और काफ़ी समय तक हमारी बात नहीं हुई। कल ही उन्होंने जब ये कविता भेजी तो सुखद आश्चर्य हुआ कि उनके भीतर एक कवि भी विराजमान है। ये कविता उन्होंने हमारी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेस में एक कविता लेखन प्रतियोगिता के लिए लिखी थी। और अगर कविता इतनी बढ़िया लिखी होगी तो प्रथम पुरस्कार तो मिलना ही था। आप भी आनंद लीजिये।]
आज की स्थिति बहुत ही गंभीर और व्यापक है
कैसे करूं क्या करूं सोचता अध्यापक है
एक तरफ़ तो शिक्षा का विस्तार हो
पर दूसरी तरफ़ न इसका व्यापार हो
पर क्यों केवल इसका जिम्मा शिक्षक का हो
विद्यार्थी का भी तो व्यवहार भिक्षक का हो
ईश्वर से है बस यही कामना,
मन में हो बस यही भावना
शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी हो
शिक्षक के रूप में कृष्ण जैसा सारथी हो
शिक्षक का सम्मान हो
शिक्षा पर अभिमान हो
शिक्षा और शिक्षक का नाता शरीर और आत्मा जैसा हो
और शिष्य की नजर में गुरु का स्थान परमात्मा जैसा हो