14.8.06

राष्ट्रपति जी द्वारा सात सूत्रीय शपथ

60वें स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में हमारे राष्ट्रपति जी ने युवाओं को सात सूत्रीय शपथ लेने का आह्वान किया है। ये शपथ है :

मैंने तो यह शपथ ले ली है। सब युवाओं से अनुरोध है कि दृढ़तापूर्वक यह शपथ लेकर राष्ट्र एवं जगत को खुशहाल बनाने की ओर अग्रसर हों।

राष्ट्रपति जी से विनम्र अनुरोध है कि वो देश के नेताओं को भी यह शपथ लेने को प्रेरित करें। कितना अच्छा हो कि आफिस आफ प्रोफिट बिल और सूचना के अधिकार वाले बिल जैसी हठधर्मिता छोड़ कर राष्ट्र निर्माण का काम करें। दोनों बिल चौथी एवं पांचवीं शपथ का उल्लंघन प्रतीत होते हैं।

11.8.06

परिचय − गुरूकुल कांगड़ी (भाग 2)

(भाग 1 में हमने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना व दैनिक चर्या के विषय में पढ़ा था। अब हम गुरूकुल के शैक्षणिक स्तर के बारे में पढ़ेंगे। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ही एक अमरीकी यात्री श्री मीरोन फिल्पस ने गुरूकुल कांगड़ी के बारे में भारतीय समाचार पत्र पायनियर में कुछ पत्र लिखे थे। प्रस्तुत लेख उन्हीं पत्रों में उपलब्ध तथ्यों पर आधारित है।)

गुरूकुल में नैतिक व धार्मिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। गुरूकुल ने इसके लिए विशेष पुस्तकें भी तैयार करवाई थी एवं कुलपति स्वामी श्रद्धानन्द स्वयं इन विषयों पर छात्रों से वार्ता करते थे। छात्रों को पवित्र संस्कृत ग्रन्थो का पठन करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता था। छात्रों की पाठ्य सामग्री व दैनिक चर्या के आधार पर कहा जा सकता है कि गुरूकुल का वातावरण वेदों व उपनिषदों से लबालब था।

तमाम धार्मिक शिक्षा के साथ−साथ गुरूकुल का आचार्यवर्ग इस बात के लिए भी सजग था कि छात्र दुनिया में निरन्तर हो रही गतिविधियों, नवीन खोजों व उपलब्धियों से अनभिज्ञ न रहें। इसके लिए छात्रों के पाठ्यक्रम में पश्चिमी साहित्य व आधुनिक विज्ञान से सम्बन्धित पुस्तकों को न केवल स्थान दिया गया बल्कि छात्रों को गुरूकुल के पुस्तकालय के माध्यम से नवीनतम पुस्तकें व पत्रिकाएं उपलब्ध भी करवाई गईं।

फिल्पस ने गुरूकुल व अन्य संस्थाओं की दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के बीच तुलनात्मक विश्लेषण भी किया।
  • विज्ञान - गुरूकुल के छात्र कईं वर्ष आगे हैं। भौतिकी, रसायन शास्त्र व मैकैनिक्स की अनेक गूढ़ पुस्तकों का अध्ययन गुरूकुल में होता है, अन्य संस्थानों में नहीं।
  • गणित - गुरूकुल के छात्र अन्य संस्थानों के छात्रों के समकक्ष हैं।
  • इतिहास - गुरूकुल के छात्रों ने भारतीय व ब्रिटिश इतिहास के 2000 पृष्ठ पढ़े हैं जबकि अन्य संस्थानों के छात्र 400 पृष्ठ ही पढ़ते हैं। इतिहास में यहां के छात्र अन्यत्र बी0ए0 के बराबर हैं।
  • अंग्रेजी - दसवीं में गुरूकुल के छात्र अन्य संस्थानों की दसवीं से पीछे हैं। परन्तु चौदहवीं तक पहुंचते पहुंचते वें अन्य संस्थानों की चौदहवीं के समकक्ष हो जाते हैं।
  • संस्कृत - गुरूकुल के छात्र बहुत आगे हैं। दसवीं के छात्रों की संस्कृत एम0ए0 (अंग्रेजी) के छात्रों की अंग्रेजी के बराबर की है।
  • दर्शन व तर्क शास्त्र - गुरूकुल के छात्र अन्य विद्यालयों से श्रेष्ठ हैं।

फिल्पस लिखते हैं कि गुरूकुल के छात्रों के श्रेष्ठ होने की वजहों में से एक तो शिक्षा के अनुकूल प्राकृतिक वातावरण है, दूसरे वहां के जीवन में नियमितता व अनुशासन है और तीसरे शिक्षा का माध्यम हिन्दी है जिसे भारतीय छात्र आसानी से समझकर ग्रहण कर सकते हैं। हम स्पष्ट देख सकते हैं कि गुरूकुल के संस्थापक गुरूकुल को श्रेष्ठ मार्ग पर चला पा रहे थे। यही कारण था कि महान विभूतियां जैसे महात्मा गान्धी, भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एन्ड्रयूज, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद व जवाहर लाल नेहरू गुरूकुल से विशेष स्नेह रखते थे और इसलिये उन्होंने गुरूकुल की यात्राएं भी की।

इसके बावजूद गुरूकुल को सरकारी मदद न मिल सकती थी। ऐसा नहीं था कि गुरूकुल को विदेशी सरकार से मदद की अपेक्षा थी पर सामान्य तर्क तो यही कहता है कि समाजोपयोगी कार्य करने वाली ऐसी संस्थाओं को मदद दी जानी चाहिए। फिल्पस के अनुसार सरकारी मदद पाने के लिए गुरूकुल को संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी रखनी पड़ती, जो गुरूकुल को स्वीकार नहीं था। इसके साथ−साथ गुरूकुल को अपनी स्वयं की पुस्तकों के स्थान पर सरकारी पुस्तकें पढ़ानी पड़ती जो निश्चय ही गुरूकुल का सत्यानाश कर देतीं।

भारत में आदर्श शिक्षा पद्धति की खोज करने के इच्छुक व्यक्तियों से आग्रह है कि वो गुरूकुल कांगड़ी के इतिहास व उपलब्धियों का अध्ययन अवश्य करें।

4.8.06

परिचय − गुरूकुल कांगड़ी (भाग 1)

“कुछ बात ऐसी है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी”। एक हजार वर्षों की दासता के बावजूद भारत अपनी संस्कृति को बचा सका है। हमारे पूर्वजों के पुण्यों का प्रताप कुछ ऐसा है कि आज भी ऋषियों व मुनियों की कड़ी में अनवरत नई कड़ियां जुड़ रही हैं, जो हमारी संस्कृति को नया जीवन प्रदान करती हैं।

आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व ऐसे ही एक कर्मयोगी व ऋषि व्यक्तित्व महात्मा मुंशीराम (कालान्तर में स्वामी श्रद्धानन्द) ने हरिद्वार के निकट गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की थी। महात्मा मुंशीराम व उनके आर्य समाजी मित्रों की काफी समय से इच्छा थी कि तक्षशिला गुरूकुल के जैसा एक गुरूकुल शुरू हो, जो भारतीय संस्कृति की न केवल रक्षा करे अपितु नवीन शास्त्रों की रचना करके इस संस्कृति को नवपल्लवित भी कर सके। वैदिक धर्म को हर घर में पहुंचा सकने योग्य प्रचारकों का निर्माण हो व ऋषियों की इस भूमि के नागरिक उच्चतम आदर्शों को पुन: आचरण में लाने का उद्यम करें।

दुभार्ग्यवश धनाभाव व पर्याप्त साहस के अभाव के कारण यह कार्य कईं वर्षो तक टलता रहा, जब तक कि महात्मा मुंशीराम, जो पेशे से वकील थे, ने अपनी वकालत छोड़ कर धन एकत्रित करने का बीड़ा उठाया। अपना सर्वस्व उन्होंने गुरूकुल को समर्पित कर दिया व दर−दर जाकर पैसा इकठ्ठा करने लगे। उनके मित्रों ने ही उन्हें पागल व सनकी समझना शुरू कर दिया, पर मुंशीराम का निश्चय पक्का था।

अस्तु। मुठ्ठी भर छात्रों के साथ 1902 ईस्वी में गुरूकुल का शुभारम्भ हुआ। काम कठिन था। जिस समाज में योग्यता का मापदण्ड मात्र व्यक्ति के धन कमाने की क्षमता बन गया हो व सांसारिक सफलता ही एकमात्र ल्क्ष्य माना जाता हो, ऐसे समाज में हिन्दी माध्यम से पुरातन तरीकों द्वारा शिक्षा प्रदान करने का कार्य निश्चय ही जोखिम भरा था। लेकिन मुंशीराम जानते थे कि जितना महान लक्ष्य होगा, उतना ही अधिक जोखिम होगा और उतनी ही अधिक कीमत भी चुकानी होगी।

गुरूकुल की चर्या: गुरूकुल में सात वर्ष की आयु के बच्चों को 16 वर्षों के लिए प्रवेश मिलता था। छात्रों को इन सोलह वर्षों के लिए गरीबी, ब्रह्मचर्य व अनुशासन की प्रतिज्ञा करनी होती थी। वर्तमान समाज की दृष्टि से देखें तो एक अति कठोर नियम था − छात्र इन 16 वर्षों तक अपने घर नहीं जा सकते थे। उनके माता पिता ही उनसे मिलने के लिए माह में एक बार आ सकते थे। इस नियम के बावजूद उन्हें अच्छे छात्र भी मिले व देश विदेश में प्रशंसक भी मिले। अपनी स्थापना के 15 वर्ष के भीतर ही यह इतना प्रसिद्ध हो गया था कि गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उनके मन में भी इस गुरूकुल को देखने की तीव्र इच्छा थी।

छात्रों का दिन हर रोज प्रात: 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक चलता था। सुबह व सायं की पूजा, हवन व सुभाषितों का पाठ के अतिरिक्त साढ़े छ: घण्टे की कक्षा लगती थी। लगभग प्रतिदिन सुबह की प्रार्थना के बाद अवैतनिक कुलपति मुंशीराम से नैतिक शिक्षा विषयक परिचर्चा होती थी व सायं की प्रार्थना से पूर्व मैदान में खेल खेले जाते थे। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अगस्त सितम्बर की छुट्टियों के दौरान शिक्षकवर्ग छात्रों को अपने साथ भारत के विभिन्न भागों में शैक्षणिक यात्राएं कराने ले जाता था।

(भाग 2 में आगे − गुरूकुल में शिक्षा की पद्धति एवं शिक्षा का स्तर)