चालीस के दशक की परिस्थितियाँ पुनः बन रही हैं। उस समय जिन्ना था, अब गिलानी वही बातें कर रहा है। हिंदू और मुसलमान दो विभिन्न राष्ट्र हैं और वो एक साथ मिल कर नहीं रह सकते - यही दो राष्ट्र का सिद्धांत है, जिस के आधार पर पाकिस्तान बना, लेकिन भारत ने इस सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया।
चालीस के दशक में सांप्रदायिक ताकतें अपने चरम पर थी। एक ओर मुस्लिम लीग भारत की अखंडता को तोड़ने के लिए हिंदू व मुस्लिम समुदायों का ध्रुवीकरण करने में लगी थी, वहीं हिंदूवादी संगठन देश की अखंडता बचाने के लिए मुस्लिम लीग की हिंसा में भागीदारी कर रहे थे। दोनों समुदाय धीरे-धीरे एक दूसरे का विश्वास खोते गए और अंततः पाकिस्तान बन ही गया। आज भी पाकिस्तान यह बात मानता है की हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते, जबकि भारत इसके उलट "हिंदू मुस्लिम सिख इसाई, आपस में सब भाई-भाई" का नारा बुलंद करता रहा है।
१९४७ के बाद भारत में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द फ़िर से स्थापित हुआ। शिक्षा पाठ्यक्रम, राजनैतिक नेता, धर्मगुरु और सामान्य जन - सभी स्तरों पर पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को बल मिला। कुछ साम्प्रदायिक दंगों की बात छोड़ दें तो अधिकाँश समय शांतिपूर्वक ही बीता।
लेकिन १९८० के दशक में जम्मू कश्मीर के चुनावों में कथित धांधली के बाद कश्मीर में अलगाववाद का दौर शुरू हो गया। जम्मू कश्मीर में धारा ३७० के कारण ऑटोनोमी शुरू से रही है। वहाँ मुख्यमंत्री सदा मुसलमान रहे हैं, कश्मीरी लोग भारत में प्रधान मंत्री, गृह मंत्री व सेना प्रमुख भी रहे हैं - लेकिन फ़िर भी अलगाववाद यह बोल कर शुरू हुआ की भारत ने कश्मीरियों के साथ भेद-भाव किया है। झूठ के पाँव नहीं होते, लेकिन एक झूठ बार-बार बोला गया तो लोगों ने उसे ही सच मानना शुरू कर दिया। अस्सी के दशक का अलगाव नब्बे के दशक में कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से निकालने में कामयाब हो गया। "दो राष्ट्र के सिद्धांत" को पाकिस्तान की शह पर फ़िर से बल मिल रहा था। लेकिन भारत ने हार नहीं मानी थी।
भारत ने अलगाववादियों की बन्दूक का सामना करने के लिए सेना भेजने का फ़ैसला किया। भारतीय सेना ने आम कश्मीरियों के जान माल की रक्षा करने के लिए अलगाववादियों को खदेड़ना शुरू किया। लेकिन इस्लाम के नाम पर इसका विरोध किया गया और इल्जाम लगाया गया की भारतीय सेना कश्मीरियों पर जुल्म कर रही है। अब तर्क १८० डिग्री घूम कर कुतर्क बन गया और यह कहा जाने लगा कि क्योंकि भारतीय सेना कश्मीर में है, इसीलिए कश्मीरी आतंकवादी बन रहे हैं। आज तो चालीस के दशक की ही तरह भारत में फ़िर से एक वर्ग ऐसा बन गया है, जो कश्मीरी अलगाववादियों के भारत से अलग होने के अधिकार को मान्यता दे रहा है।
"दो राष्ट्र का सिद्धांत" हमने न कभी स्वीकार किया है, न कभी करेंगे। बराबर के अधिकार और बराबर की आजादी के साथ सब मतों के लोग भारत में सदियों से मिलजुल कर रहते हैं। ये कश्मीरी अलगाववादी भी चाहें तो मिल कर रह सकते हैं, लेकिन इस्लाम का वास्ता देकर किसी प्रकार उनके दिमाग में बैठ गया है की हिंदू जनों के साथ वो नहीं रह सकते। जो लोग ये नहीं मानना नहीं चाहते की कश्मीर की लड़ाई इस्लाम को लेकर है तो वो कृपया गिलानी का भाषण सुन लें। गिलानी ने यह भाषण श्रीनगर में हजारों लोगों के सामने दिया था; मीरवायज उमर फारूक और यासीन मलिक भी वहीं थे, पर किसी ने प्रतिवाद नहीं किया! उस भाषण के बाद भी यदि किसी को संदेह बचे तो उसकी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है।
इस लेख के माध्यम से एक ही बात कहना चाहता हूँ की मर जाएंगे, मिट जाएंगे, पर इस बार देश का विभाजन नहीं होने देंगे। जो मिल जुल कर नहीं रह सकता, वो देश छोड़ कर जाने के लिए स्वतंत्र है। कश्मीर का सवाल सिर्फ़ जम्मू और कश्मीर राज्य या भारत-पाकिस्तान का सवाल नहीं है, बल्कि मानवीय मूल्यों का सवाल है। इस बार हम हारे तो बेहतर होगा की भारत के इतने टुकड़े हो जाएँ जितने भारत में पंथ हैं। कम से कम १०-१२ टुकड़े होने चाहियें, लेकिन वो दिन देखने से पहले मैं अपना बलिदान दे दूँगा।
2 टिप्पणियां:
काश्मीर की स्थिति के लिये इस्लाम की गलत समज जिम्मेदार है। इसे नेहरू ने नहीं समझा । इसे कांग्रेस आज तक नहीं नहीं समझ पायी।
द्विराष्ट्र के सिद्धान्त की जड़े और भी गहरी हैं। यह इस्लाम के खूनी विस्तारवादी सिद्धान्त का पौधा है जो दुनिया को स्पष्टत: दो भागों में बांटती है:
१) दारुल इस्लाम (इस्लामी शासन)
२) दारुल हरब (गैर-इस्लामी शासन, जेहाद करके इसे दारुल इस्लाम में बदलना परम कर्तव्य है ।)
यही सिद्धान्त सारे फ़साद की जड़ है। मानवता के भविष्य के लिये सबसे बड़ा खतरा है।
very interesting
एक टिप्पणी भेजें