शहीद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु व चन्द्रशेखर आजाद की शहादत के ७५ वर्ष पूरे होने पर नवनिर्माण के ३ विशेषांक इस वर्ष फरवरी, मार्च व अप्रैल माह में निकले थे। इन विशेषांकों के लिये मैंने यह लेख लिखा था। सृजनशिल्पी जी ने "गाँधी की महानता पर उठते प्रश्न" लेख में जो प्रश्न प्रस्तुत किये हैं और स्वामी रामदेव, ओशो आदि महापुरुषों के विचार लिखे हैं, उस परिपेक्ष्य में यह लेख असामयिक नहीं होगा।
मेरा मानना है कि गान्धीवाद के नाम से किसी वाद को रचने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि गान्धी जी ने कोई नई बात नहीं बताई थी। सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पंचायती राज व्यवस्था आदि बातें भारतीय संस्कृति में सदा से रही हैं। गांधी जी ने सिर्फ उन को अपने तरीके से पुनः स्थापित करने का प्रयास किया था। उस विषय पर फिर कभी लिखूंगा।
महापुरूषों व आम इन्सानो में एक अन्तर यह होता है कि महापुरूष निन्दा व ईर्ष्या के भाव नहीं रखते, जबकि एक सामान्य व्यक्ति इन दुगुर्णों से ग्रस्त रहता है। आज कल गान्धी जी व भगत सिंह जैसे महापुरूषों की तुलना करना व दोनों में से किसी एक को श्रेष्ठ बताने का रिवाज सा चल पड़ा है। परन्तु इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि इन महापुरूषों में मतभेद तो अनेक थे, मगर किसी ने भी दूसरे व्यक्ति की न तो निन्दा की और न ही किसी प्रकार की स्पर्धा व ईर्ष्या को मन में स्थान दिया।
शहीद सुखदेव ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही गान्धी जी को एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र में गान्धी जी के विचारों व कार्यप्रणाली से मतभिन्नता ही भरी हुई थी, परन्तु सुखदेव जी पत्र का आरंभ “परम कृपालु महात्मा जी” के सम्बोधन से प्रारम्भ करते हैं। पत्र में सुखदेव जी ने गान्धी−इर्विन समझौते के बाद गान्धी जी की उन प्रार्थनाओं के औचित्य पर सवाल उठाए जिनमें गान्धी जी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को बन्द करने का आग्रह किया था। अत्यन्त शालीन भाषा में लिखे इस पत्र का अन्त सुखदेव जी “आपका, अनेकों में से एक” लिख कर करते हैं।
ठीक इसी प्रकार गान्धी जी जब इन शहीदों के बारे में बोलते हैं तो उनकी बातों से इन वीरों के प्रति आदर ही झलकता है, और विरोध करते हैं तो मात्र ‘हिंसा’ की मानसिकता का। 29 मार्च 1931 को ‘भगत सिंह’ शीर्षक से नवजीवन में प्रकाशित एक लेख में गान्धी जी जहां एक ओर गान्धी जी भगत सिंह से मतभेद प्रगट करते हैं,वहीं दूसरी ओर लिखते हैं कि “इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।” इसी लेख में गान्धी जी लिखते हैं कि भगत सिंह हिंसा को अपना धर्म नहीं मानता था; वह अन्य कोई उपाय न देख कर ही खून करने को तैयार हुआ था।
हम पाते हैं कि महापुरूष मतभेद तो प्रकट करते हैं, परन्तु व्यक्तिगत विरोधों का उनकी दृष्टि में कोई स्थान नहीं होता। ऐसे ही गुण उन्हें जनसाधारण की दृष्टि में महापुरूष बनाते हैं।
भारतीय संस्कार भी हमें यह सिखाते हैं कि “पापी से भी घृणा न करो”। फिर यह कैसे हो गया कि हम लोग जिस व्यक्ति के विचारों व कृत्यों से सहमत नहीं होते, उससे विद्वेष पाल लेते हैं। भगत सिंह की अतिशय देशभक्ति व 23 वर्ष की अल्पायु में अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर कर देना ही उनके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न करने के लिये काफी है − चाहे हम भगत सिंह की कार्य प्रणाली से सहमत न हों। उसी प्रकार गान्धी जी द्वारापैदा की गई जनचेतना, हर प्रकार के भौतिक सुखों का त्याग तथा अतिशय भारत−प्रेम भी उन्हें श्रद्धेय ही बनाते हैं − चाहे हम उनकी कार्य प्रणाली से सहमत न हों।
आइये, हम प्रण करें कि कभी दो व्यक्तियों की तुलना नहीं करेंगे। कभी किसी व्यक्ति की निन्दा भी नहीं करेंगे। महापुरूषों के गुण उन्हें सदैव आदरणीय बनाते हैं, चाहे उनकी कार्य प्रणाली से हम सहमत न हो पाएं। इसलिए हर मतभेद के बावजूद उनके गुणों का आदर हम करते रहेंगे।